शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

(लघुकथा) कलाकारी



एक बहुत बड़े साहब थे. काम-धंधे वाले बड़े-बड़े लोग उनकी जी-हज़ूरी और कैश-सेवा में रहते थे. इसीलि‍ए तन्‍ख्‍वाह ज़्यादा न होने पर भी उनका रहन-सहन ठस्‍से का था. कभी-कभी कानून का चिंतन हो आता तो मनन करने लगते. एक दि‍न इसी मनन से प्रकाश प्रकट हुआ तो वे ख़ुद फ़ोटोग्राफ़र हो गए और उनकी घरघुस्‍सू बीवी पेंटर. अब दोनों ही, आए दि‍न प्रदर्शनि‍यां लगा-लगा कर फ़ोटुएं और पेंटिंग्‍स बेच नावॉं काट रहे हैं. दस-पंदह हज़ार रूपए की कीमत वाली एक कॉफ़ी टेबल बुक पर भी काम चल रहा है.

साहब का ड्राइवर भी पेपर-श्रैड्डिंग मशीन की एजेंसी लेने की सोच रहा है क्‍योंकि‍ लोग फ़ोटो और पेंटिंग्‍स ख़रीद कर, धीरे से उसे ही गि‍फ़्ट में दे जाते हैं.
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