गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

(लघुकथा) गँवार.



वह गॉंव में रहता था. मस्‍त था. बचपन से सीधे प्रौढ़ावस्‍था में  पांव रखने की ज़रूरत नहीं थी उसे. कुछ साथ पढ़ने-लि‍खने वाले  दोस्‍त थे तो कुछ बचपन के संगी-साथी. उनके साथ समय मज़े में गुजर रहा था. खुल कर ठहाके लगाता था वह. दुनि‍या से कोई ख़ास ग़ि‍ला शि‍क़वा न था. पढ़ने लि‍खने में भी ठीक ही था. कवि‍ताएं लि‍खता था. प्‍यार की कवि‍ताएं. यही कवि‍ताएं एक दि‍न उसे शहर के एक बहुत बड़े अख़बार में ले आईं.

कई साल बीत गए, गॉंव का एक पुराना दोस्‍त उससे मि‍लने उसके दफ़्तर आया. दोनों काफी देर बातें करते रहे. लेकि‍न उसके दोस्‍त ने पाया कि‍ अब वह बात धीमे से करता है और उन बातों पर बस मुस्‍कुरा के रह जाता है जि‍न पर कभी वह ठहाके लगाया करता था. दोस्‍त ने उसकी ऑंखों में झॉंका. ‘ठहाका लगा कर हँसने वाले को यहॉं गँवार माना जाता है, यार.’ कह कर वह सीट से उठा और दोनों धीरे-धीरे कैंटीन की ओर चल दि‍ए. 

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सोमवार, 16 दिसंबर 2013

(लघुकथा) बेशर्म



     वह सि‍गरेट का आख़ि‍री कश लगा कर उसे फेंकने ही वाला था कि उसकी नज़र सामने पड़ी. उसने देखा कि एक अधेड़ आदमी और औरत एक दूसरे का हाथ पकड़े चले आ रहे हैं. उसे लगा कि वाह क्‍या नंग ज़माना आ गया है. अगर इस उमर के लोग ही इस तरह की सरेआम बेहयायी पर उतर आएंगे तो जवान बच्‍चे क्‍यों नहीं इसी तरह की हरकतें करेंगे.

     वह वहीं इस तरह से रूक गया कि मानो सड़क पार करने की इंतज़ार में है. उसे लगा कि मैं भी तो देखूं आख़ि‍र ये लोग हैं कौन. हालांकि वह देख सड़क के उस पार रहा था पर उसकी नज़र उन दोनों पर ही थी, जो उसके पास आते जा रहे थे. जब वे उसके सामने से गुजरे तो उसे एहसास हुआ कि औरत को शायद बहुत कम दि‍खाई देता था और आदमी देख नहीं पाता था. उसने सि‍गरेट का आख़ि‍री सर्द कश लि‍या, टुकडा वहीं फेंक कर धीरे से पांव से मसला और चुपचाप सड़क पर गया. 
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सोमवार, 25 नवंबर 2013

(लघुकथा) एन. जी. ओ.




दोनों बहुत अच्‍छे दोस्‍त थे. वे आज एक ज़माने बाद दोबारा मि‍ले. दोनों ने पूरी ज़िंदगी साथ-साथ नौकरी कर के बि‍ता दी थी. एक के बेटा-बेटी तो इंजीनि‍यर और डॉक्टर हो गए, पर दूसरे का इकलौता बेटा कि‍सी तरह बी.ए. तो कर गया लेकि‍न उसका कुछ बना नहीं.

‘क्‍या बताऊं, नौकरी के कि‍सी भी इम्‍ति‍हान में पास नहीं ही हो पाया.’
‘कि‍सी पार्टी-वार्टी में ट्राई कि‍या होता, शायद टि‍कट मि‍ल जाती.’
‘ना जी. वहां कहां नयों को जगह मि‍लती है, सभी अपने-अपने बेटे-बेटि‍यों को आगे कि‍ए रहते हैं.’
‘तो फि‍र ?
‘सोच रहा था कि‍ बेटे को एक मंदि‍र खुलवा दूं पर वो नहीं माना. आख़ि‍र, एक एन. जी. ओ. खुलवा दी है. एकदम मॉडर्न और प्रोफ़ेशनल एन. जी. ओ. है, पाई-पाई का हि‍साब रखता है, क्‍या मजाल कि‍ चवन्‍नी भी इधर से इधर हो जाए, चाहे वह नेताओं की हो या फि‍र बाबुओं की.’
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बुधवार, 13 नवंबर 2013

(लघुकथा) ड्राइवर



उन दोनों में अच्‍छी दोस्‍ती थी. वे दोनों ही ड्राइवर थे. एक प्राइवेट कार का, दूसरा सरकारी कार का. दोनों के साहब लोगों के दफ़्तर एक ही बि‍ल्‍डिंग में थे. सुबह अपने-अपने साहबों को दफ़्तर पहुंचाने के बाद गाड़ि‍यां पार्किंग में लगा कर सारा दि‍न साथ ही बि‍ताते थे वे. उनके जैसे दूसरे कई और ड़ाइवर भी थे. लगभग सभी एक दूसरे के बारे में बहुत कुछ जानते समझते थे.

एक दि‍न बातचीत में, प्राइवेट वाले ने बताया कि अगर उसे कभी पैसे की ज़रूरत आ पड़े तो उनकी कंपनी कुछ छोटा-मोटा  एडवांस दे देती है जो बाद में सेलरी से एडजस्‍ट हो जाता है. सरकारी ड़्राइवर ने कहा कि भई उनके यहां तो सरकार में इस तरह से एडवांस देने का कोई सि‍स्‍टम नहीं है पर हां, जब कभी ऐसी ज़रूरत आ ही पड़़े तो ट्रैफ़ि‍क में तेज़ी से चलते हुए एक ज़ोरदार ब्रेक मार देता हूं. पीछे वाली गाड़ी मेरी कार में ठुक जाती है, कार रि‍पेयर के लि‍ए भेजनी पड़ती है, वर्कशॉप वाला रि‍पेयर के ख़र्चे में से दो-तीन हज़ार का कमीशन दे देता है. साथ ही साथ, दो चार दि‍न की छुट्टी भी मि‍ल जाती है. वर्ना, कम पेट्रोल भरवा कर ज्‍यादा पेट्रोल की पर्ची लेने से भी कुछ कुछ काम तो हर महीने यूं भी चलता ही रहता है.



फि‍र दोनों हँस दि‍ए.
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