मंगलवार, 28 अगस्त 2012

(लघु कथा) बकरि‍याँ


एक गाँव था. उस गाँव में बहुत सी बकरि‍याँ थीं. ज़्यादातर बकरि‍याँ गँवार थीं. और जहाँ देखो वहीं मुँह मारती रहती थीं वे बकरि‍याँ. मुँह मारने की दौड़ में, वे आपस में बारी-बारी एक-दूसरे से अपना-अपना हक़ भी माँगा करती थीं. आमतौर से एक-दूसरे की बात मान लेती थीं वे बकरि‍याँ पर, जो कभी कि‍सी धड़े ने बात न मानी और बारी फलॉंग कर फि‍र कहीं मोटा बुटका भर लि‍या तो दूसरि‍यों को ग़ज़ब के मरोड़ उठते थे. पूरा गॉंव वो सि‍र पर ऐसे उठा लेती थीं कि‍ सारा-सारा गॉंव खाए की जुगाली तक करना भूल जाता था.

एक दि‍न फि‍र वही दंगा हुआ. दूसरे धड़े ने, पहले धड़े की बड़ी बकरी पकड़ ली और उसे घेर कर माल उगलने को कहा. पर वो बड़ी बकरी भी कमाल की काइयॉं थी. उसने भी जवाब में मेंमें-मेंमें कर दी, जब तक दूसरे धड़े की बकरि‍याँ मेंमें-मेंमें का मतलब समझतीं, वो चलती भी बनी.

बाद में पता चला कि‍ उसने तो मेंमें-मेंमें भी नहीं की थी बल्‍कि‍ वो तो जाते-जाते एक शेर सुना गई थी.
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सोमवार, 27 अगस्त 2012

(लघुकथा) अथकथा राजनीति‍



एक देश था. देश में लोकतंत्र था. उस देश में दो राजनीति‍क पार्टि‍यां थीं.

जो पार्टी सत्‍ता में थी, उसके पास लीडर नहीं था इसलि‍ए उसके लोग लीडर खोजते रहते थे.

जो पार्टी वि‍पक्ष में थी, लीडर उसके पास भी नहीं था. वे भी लीडर खोजते रहते थे क्‍योंकि‍ उनके यहां जो लीडरी के क़बि‍ल था उसे वे लीडर बनने ही नहीं देना चाहते थे.
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शनिवार, 18 अगस्त 2012

(लघु कथा) दो बेचारे



वह ड्राइवर था, बहुत अच्‍छा ड्राइवर था. दूर दूर तक लोगों ने उसकी ड्राइविंग के चर्चे सुन रखे थे. एक दि‍न उसने फ़ैसला कि‍या कि‍ चलो अपनी ही गाड़ी ख़रीद ली जाए.

वह शोरूम जाकर बोला –‘लाला जी एक अच्‍छी सी कार दि‍खाओ.’
उसे देख कर लाला की तो बाछें खि‍ल गईं –‘चलो छोड़ो, कार खरीद कर क्‍या करोगे. ये लो मेरे यहां ड्राइवरी कर लो.’ अपनी कार की चाभि‍यां उसकी तरफ फेंकते हुए शोरूम मालि‍क बोला. उसने मन मसोस कर मना कि‍या और बाहर आ गया.

वापसी में उसे वह फ़ोटोग्राफ़र दोस्‍त मि‍ला जो सुबह कि‍सी प्रकाशक के पास अपनी कि‍ताब छपवाने की बात करने गया था. उसका उतरा हुआ मुँह देख कर उसने पूछा –‘क्‍यों, तुम्‍हारे साथ भी यही हुआ क्‍या ?’

दोनों ही मुस्‍कुरा दि‍ए और फि‍र बि‍ना कोई बात कि‍ए साथ-साथ चलने लगे.
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शनिवार, 4 अगस्त 2012

(लघुकथा) परि‍णति‍


एक गाँव में एक सीधा सा ईमानदार बूढ़ा आदमी रहता था. आत्‍मा के जीवन-यापन के लि‍ए वो आए दि‍न, शहरों में जा कर अनशन करता रहता था. एक दि‍न, मार्केटिंग वाले कुछ लोगों की नज़र उस पर पड़ी तो वे खुद तो उसके चेले हो ही लि‍ए, ढेरों दूसरे चेले भी जुटा लाए.

एक बार अनशन के तय दि‍न बाबा को कुछ काम आ पड़ा. चेलों ने बाबा को कॉपी करने की ज़ि‍द की, बाबा ने भी हामी भर दी. लेकि‍न जोश-जोश में चेले, जब अनशन को आमरण-अनशन घोषि‍त करके फॅस गए तो उन्‍हें समझ आया कि‍ ये तो बड़ा मुश्‍कि‍ल काम है. उन्होंने बाबा को बर्गलाया, कि‍ चलो ये हठयोग छोड़ कर कोई दूसरा आसान सा धन्‍धा करते हैं. उन्‍होंने एक राजनैति‍क पार्टी बना दी. अब, बाबा उनके पीछे-पीछे पगलाया सा गली-गली वोट मॉंगता घूमता रहता है, बुढ़ापे में. 
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