शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

नया साल

जेब में पैसा
तो नया साल.
पैसा नहीं
तो
एक और कम्बख़्त
कड़कड़ाती सुबह.
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शनिवार, 24 दिसंबर 2011

(लघु कथा) ख़ुशफ़हमी


एक नेता जी थे और एक थी भीड़.
भीड़ नेता जी की कोठी पहुंची. नेताजी ऊपर वाले मकान की बालकनी में आए.
नेता जी को देख गुस्साई भीड़ ने पत्थर पकड़े हाथ ऊपर उठाए. नेता जी ने समझा लोग जय जयकार कर रहे हैं.
कुप्पाए नेता जी ने खुशी ख़ुशी स्वीकारोक्ति में हाथ जोड़े, भीड़ को लगा नेता जी ने हाथ जोड़ कर माफ़ी मांग ली है.
नेता जी वापिस अंदर चले गए. भीड़ के लोग भी तितर बितर हो अपने अपने घर हो लिए.
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(लघु कथा) लाले का मकान

एक लाला जी थे, गले तक नोटों से पटे पड़े थे. जलवा दिखाने को, वास्तु वालों को बुला हज़ारों करोड़ रुपये का चूना कर झुग्गी सा एक फ़्लैट बनवाया. गृह प्रवेश करते ही लाखों करोड़ रुपये के शेयर गिर गए.
लाला जी ने पांडू बुलाए— "क्यों?"
"कब्रिस्तान पे मकान बनाने की किसने कही थी"— उन्होंने तो खीस निपोर दी.
लाला जी ढक्कन हुए.

शनिवार, 3 दिसंबर 2011

दुनिया

दुनिया
बहुत ख़ूबसूरत है.

बात बस इतनी सी है कि
कौन किस नज़र से देखता है.

अपना नक़ाब उतारो
आओ इसे साथ-साथ देखें.

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गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

(लघु कथा) निरापद

उसे बड़ा अच्छा लगता था धरने-प्रदर्शनों में भाग लेना. जैसे श्मशान, शादी, जलसों बगैहरा के लिए शहर में अलग अलग जगहें निश्चित रहती हैं ठीक वैसे ही सरकार ने विरोध प्रदर्शनों के लिए भी शहर में एक जगह तय कर रखी थी. वह उसी जगह के आस पास रहता था जहां आकर ये विरोध-प्रदर्शन समाप्त होते थे. उसे पता था कि पुलिस और प्रदर्शन के आयोजकों के बीच किस-किस दिन क्या-क्या तय रहता था.



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उसने कभी उचक-उचक कर नारे नहीं लगाए. वह तो बस, सब कुछ देख कर भी कुछ नहीं देखता था. वह इंतज़ार करता था प्रदर्शन समाप्ति के बाद मिलने वाले खाने का. गर्मियों में, जब भी कभी प्रदर्शनकारियों पर पानी की बौछार का इंताज़ाम होता तो वह उस दिन भीड़ में ज़रूर रहता –‘चलो नहाने का काम बैठ-ठाले ही हो गया.’ वर्ना उसे नहाने का पानी कहीं नसीब नहीं होता था. कपड़े के झंडे-बैनर उसके बहुत काम आते थे. सर्दियों में, वह नेताओं के पुतले जलाए जाने की बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा करता. और रात भर उसी अलाव के किनारे दो-एक कुत्तों के साथ आराम से रात बिता देता.
उन सर्दियों में एक नया थानेदार आया. उसने वहां भी धरने-प्रदर्शनों पर रोक लगा दी. ग़जब की ठंड पड़ी उस साल और एक सुबह वह झंडे-बैनरों के नीचे ठंड से अकड़ कर मरा पाया गया.
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(लघु कथा) नालायक बेटा



क का बेटा नालायक निकला. ठीक से पढ़ा-लिखा नहीं. पढ़े लिखों का ही यूं कौन ठिकाना था कि कोई उसके बेटे को पूछता. माल-मत्ता उसके पास था नहीं कि कोई लंबा-चौड़ा काम धंधा उसे खोल कर दे देता. मध्यवर्गीय जीवन ने बेटे को कई चस्के लगा छोड़े थे सो, छोटी मोटी नौकरी भी अब उसके बूते की नहीं थी. क दु:खी रहने लगा.
उसे लगा कि सन्यास ले लेना चाहिए. वह हिमालय की ओर निकल गया. यहां वहां रूकते रूकते चलता रहा वो. भूख लगती तो कि कहीं कहीं पूजा-अर्चना की जगहों में खा-पी लेता. फिर आगे निकल जाता. यूं ही एक दिन लंगर खाते खाते उसे ध्यान आया कि आख़िर ये सब सामान आता कहां से है. इस एक सवाल ने उसकी आंखों में चमक ला दी थी.

वह लौट आया. सारी जमा पूंजी इकट्ठी की और बेटे के लिए एक छोटा सा मल्टी रिलीजन पूजा स्थल खुलवा दिया. अब उसका बेटा एक सी इ ओ तरह उसका रख-रखाव करता है. धीरे-धीरे आसपास की ज़मीन ख़रीद रहा है, कमरे जोड़ रहा है, रेगुलर भंडारे करता है, डिस्पेंसरी भी खोल ली है, नैचुरोपैथी-टाइप अस्पताल का प्लान है, भक्तों के लिए सफ़ारी भी चालू की है, आश्रम और गैस्ट हाउस से गुजारा नहीं हो रहा है इसलिए भक्तों के लिए एक होटल चेन से भी बातचीत चल रही है…

क अब प्रसन्न रहता है.
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