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गुरुवार, 26 जनवरी 2017

(लघुकथा) घर



वह गांव से शहर आया था, कुछ छोटा-मोटा काम खोजता हुआ. शुरू-शुरू में ख़र्चा बांट कर किसी के साथ रहने लगा. उधर, किसी पक्की नौकरी की कोशिश भी करता रहा. एक दिन, एक बड़े कारखाने में बात बन ही गर्इ, नौकरी पक्की तो नहीं थी पर यह पता चला कि अगर पांच साल तक मेहनत से काम करे तो वह पक्का भी हो सकता है. गंवर्इ था, मेहनत और र्इमानदारी के अलावा उनके पास कुछ  होता भी क्या है, उसे पता था कि वह पक्का हो जाएगा. और हुआ भी.

इस बीच घर वालों ने एक लड़की देख कर उसकी शादी कर दी थी. उसने एक कमरा किराए पर ले लिया. हर दो-एक साल में मकान बदलते भी रहे. इस बीच, दो बच्चे भी हो गए. पढ़ार्इ भी करता रहा. जीवन में बहुत कुछ तेजी से बदल रहा था. जो नहीं बदल रहा था वह था, एक कमरे का मकान. रसोर्इ, बेडरूम, ड्राइंगरूम सब एक ही जगह. उसका बस एक ही सपना था, तीन बेडरूम का मकान. एक कमरा अपने लिए, एक बेटी के लिए, एक बेटे के लिए.

समय फिर बदला, कुछ छोटी-मोटी तरक्कियों के बाद सारी जमापूंजी और लोन मिलाकर उसने इएमआर्इ वाला तीन कमरे का एक मकान ले ही लिया. उसका सपना पूरा हो गया. बच्चों से ज्यादा अब वह ख़ुश था. कुछ साल बाद बच्चों ने स्कूल की पढ़ार्इ पूरी की. बेटा कॉलेज चला गया. बेटी दूसरे शहर के हॉस्‍टल में रहकर पढ़ने लगी. पढ़ार्इ के बाद, बेटे की नौकरी दूसरे शहर में लग गर्इ. बाद में, बेटी भी किसी और शहर में नौकरी करने लगी.

एक दिन, पति-पत्नी दोनों चुपचाप बैठे टीवी देख रहे थे. उसने अनायास पूछा -'क्या तुम्हें यह नहीं लगता कि हमारे लिए एक कमरे का मकान ही ठीक था ?' तभी उसने देखा कि पत्नी उठ कर, आंख से टपक आए आंसू को उंगली से रोकती हुर्इ बेटी के कमरे की ओर जा रही थी.
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गुरुवार, 12 जून 2014

(लघुकथा) मकान



वह गांव से शहर आकर एक बड़ा सा अफ़सर बन गया था. उसकी नौकरी में उसे तीन कमरे का मकान भी मि‍लता था. पर अभी तीन कमरे वाले मकान खाली नहीं थे सो उसने दो कमरे वाला मकान ही ले लेना तय कि‍या, वर्ना उँचे कि‍राए और आए दि‍न मकान बदलने की झांय-झांय रहती. शादी हो गई, दो बच्‍चे भी. मां-बाप और सास-ससुर भी कुछ-कुछ हफ़्तों के लि‍ए आ जाते थे. गांव से जानकार-रि‍श्‍तेदार भी आते तो इसी के यहां रहते. बच्‍चों की देखभाल और घर के काम-काज में हाथ बंटाने के लि‍ए नौकर भी था.

देखते ही देखते समय बीत चला. बच्‍चे पढ़-लिख कर दूसरे शहरों को उड़ गए. मां-बाप और सास-ससुर रहे नहीं. गांव से नाता भी फीका सा हो चला था, शायद ही वहां से कोई आता-जाता हो.  इस बीच, वह अब और भी बड़ा अफ़सर हो गया था, उसे पांच कमरों वाला मकान मि‍ला हुआ था, आगे बहुत बड़ा लॉन, पीछे पेड़ों वाला बगीचा और नौकर के लि‍ए सर्वेंट क्‍वार्टर अलग से. तीन कमरे तो लगभग बंद ही रहते. एक दि‍न पत्‍नी ने कुरेदा –‘क्‍योंजी आपकी मकान वाली पॉलि‍सी कुछ गड़बड़ नहीं है क्‍या, कि‍ जब ज़रूरत थी तो दो कमरे का मकान थमा रखा था और आज कोई रहने वाला नहीं तो पूरा अहाता ही अलॉट कर रक्खा है.’

वह बस हल्‍के सा हँस दि‍या.
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