वह गांव से शहर आकर एक बड़ा सा अफ़सर बन गया था. उसकी नौकरी में उसे तीन कमरे
का मकान भी मिलता था. पर अभी तीन कमरे वाले मकान खाली नहीं थे सो उसने दो कमरे
वाला मकान ही ले लेना तय किया, वर्ना उँचे किराए और आए दिन मकान बदलने की
झांय-झांय रहती. शादी हो गई, दो बच्चे भी. मां-बाप और सास-ससुर भी कुछ-कुछ
हफ़्तों के लिए आ जाते थे. गांव से जानकार-रिश्तेदार भी आते तो इसी के यहां
रहते. बच्चों की देखभाल और घर के काम-काज में हाथ बंटाने के लिए नौकर भी था.
देखते ही देखते समय बीत चला. बच्चे पढ़-लिख कर दूसरे शहरों को उड़ गए.
मां-बाप और सास-ससुर रहे नहीं. गांव से नाता भी फीका सा हो चला था, शायद ही वहां
से कोई आता-जाता हो. इस बीच, वह अब और भी बड़ा
अफ़सर हो गया था, उसे पांच कमरों वाला मकान मिला हुआ था, आगे बहुत बड़ा लॉन, पीछे
पेड़ों वाला बगीचा और नौकर के लिए सर्वेंट क्वार्टर अलग से. तीन कमरे तो लगभग
बंद ही रहते. एक दिन पत्नी ने कुरेदा –‘क्योंजी आपकी मकान वाली पॉलिसी कुछ
गड़बड़ नहीं है क्या, कि जब ज़रूरत थी तो दो कमरे का मकान थमा रखा था और आज कोई
रहने वाला नहीं तो पूरा अहाता ही अलॉट कर रक्खा है.’
वह बस हल्के सा हँस दिया.
00000
मकान के साइज बदलते रहने चाहिए।
जवाब देंहटाएंसही कहा
जवाब देंहटाएंदांत थे तो अखरोट नहीं, अखरोट हुए तो दांत न रहे.
जवाब देंहटाएंसबसे पहले तो कहानी के दूसरे पैरे की आठवी लाइन में 'दो कमने' को 'दो कमरे' कर दीजिए !
जवाब देंहटाएंइसके बाद कहना ये है कि पत्नी ने इशारा किया कि शादी से तत्काल पहले और शादी के काफी पुरानी होने के बाद के निर्णय में कितना बड़ा अंतर है :) और वो अपनी 'हालत' पर फिक (हल्के) से हंस दिया !
नोट : कृपया 'हालत' को शादी से जोड़कर कोई निष्कर्ष ना निकाला जाये, इसका वास्ता सरकारी मुलाजिमों के वास्ते सरकारी व्यवस्था से है :)
जी. दुरूस्त कर दिया है. धन्यवाद. 😃
हटाएंमैंने पहले, दूसरे पैरे की सारी लाइनें गिनीं फिर उसमें से आठ घटा दी. इस प्रकार जो अंतिम लाइन बची उसमें 'दो कमने' मिले ... 😃
:)
हटाएंसमय पर कुछ मिल जाये … समय के साथ कुछ खो जाये। । यही जीवन है
जवाब देंहटाएंसरकार, सेना, निजी कम्पनियों में ऐसा ही होता है. स्वाभाविक है पद के अनुसार मकान मिलता है और रिटायर होते होते व्यक्ति अधिक ऊँचे पद पर पहुँच जाता है.
जवाब देंहटाएंघुघूतीबासूती
...और फिर सारी उम्र शैम्पू से बाल धाे कर कंडीश्नर लगाने वाला इन्सान, रिटायरमेंट के बाद रीठे से बाल धोने लगते है यह कहते हुए कि वाह मुझे तो पता ही नहीं था कि रीठे में इतने प्राकृतिक गुण हैं ... l-:)
हटाएंतब तक बाल ही नही रहते है धोने के लिए :P
हटाएंयही ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा है जब जरूरत हो तो मिलेगा नही और जब न हो तो ……
जवाब देंहटाएंअपना भी वही हाल है। :-(
जवाब देंहटाएंपढ़ते हुए मुझे लगा कि काजलजी ने आप पर ही लघुकथा लिख दी है :)
हटाएंसाधु साधु.
हटाएंवास्तव में यह बात बहुत पहले कभी, मेरे एक मित्र ने कही थी मुझे भी सही लगी थी कि हां कभी किसी ने इस ओर सोचा ही नहीं कि आवश्यकता को भी महत्व दिया जाना चाहिए न कि केवल प्रतिस्थापित परिपाटी को...
यही जीवन का सच है …. अक्सर ऐसा ही होता है …
जवाब देंहटाएंऐसा होता तो है मेरा अपना अनुभव भी ऐसा ही था
जवाब देंहटाएंvyaktivadi vyavastha hai isme parivar ko shamil karne ki koi vyavastha nahi hai ..
जवाब देंहटाएंएक चीज जरूरत है, दूसरी इज़्ज़त। ये कमरे नहीं सरकार, उस अफसर की इज़्ज़त हैं!
जवाब देंहटाएंअापकी कहानी रोचक तरीके से समस्या को बताती है।पर अगर जीवन का बडा हिस्सा छोटे शहरों के बडे घर मे बिताने के बाद अगर मुम्बई के 2bhk फ्लैट मे रहना पडे तो थोडी कोफ्त होती
जवाब देंहटाएंहै
यही फलसफा है...जिन्दगी का.
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही कहा... हालाँकि अफसर जितना बड़ा होता जाता है, उनकी ज़रूरतें भले ही कम हो जाएं, मगर ख्वाहिशें बढती जाती हैं... रुतबे के एतबार से भी!
जवाब देंहटाएंyahi to Bhagwan ka khel hai jise, jo, jab chahiye nahi milta
जवाब देंहटाएंचने है तो दाँत नही और दाँत है तो चने नही !
जवाब देंहटाएंकाजल जी आपके ब्लॉग पर आकर बहुत अच्छा लगा | परिकल्पना के माध्यम से उन मित्रों के ब्लॉग तक पहुँच रही हूँ जिन्हें सिर्फ फेसबुक में पढ़ती थी |
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सुमन जी.
हटाएंआपका स्वागत है.