बुधवार, 16 जुलाई 2014

(लघुकथा ) समय.



वे दोनों साथ-साथ खेले, पढ़े और बड़े हुए. दोनों बहुत अच्‍छे दोस्‍त थे. जवानी में एक समय वह भी आया जब उन्‍हें दुनि‍या के दुख-दर्द दि‍खाई देने लगे. उन्‍होंने वि‍भि‍न्‍न वि‍चारक पढ़े, क्रांति‍यों और उनके क्रांति‍वीरों की गाथाएं पढ़ीं. मार्क्स की बातें उन्‍हें बहुत भायीं. समय बीतता चला गया. दोनों अपनी-अपनी अलग दुनि‍या में व्‍यस्‍त हो गए.  

लंबे समय बाद, दोनों एक बार फि‍र मि‍ले. एक मि‍त्र दुनि‍यादार हो गया था, उसने समय के साथ ताल मि‍लाते हुए मुस्‍कुराना भी सीख लि‍या था. दूसरे की बात करने का सलीका धीमा था पर बीच-बीच में खौलने की सी बानगी भी देता था. यूं तो दोनों ने खूब बातें कीं पर अब, पता नहीं उनके बीच कोई दीवार सी थी जो नहीं ही गि‍री.

दोनों ने अपनी-अपनी दुनि‍या में लौटने से पहले देखा कि‍ एक फ़र्क़ और था, एक के पांव में अभी भी चप्‍पल थी, दूसरे के पॉंव में अब जूते थे. 

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रविवार, 6 जुलाई 2014

(लघुकथा) डर



उस गांव के बीचोबीच से होकर एक सड़क नि‍कलती थी. सड़क के इधर हिन्‍दू रहते थे, सड़क के उस पार मुस्‍लि‍म रहते थे. दोनों तरफ, मुसलामानों के बीच कुछ-कुछ हि‍न्‍दू और, हिन्‍दुओं के बीच कुछ-कुछ मुसलमान भी रहते थे. उस गांव में न मस्‍जि‍द थी न मंदि‍र और धर्म को लेकर, दोनों में कभी कोई ऊंच-नीच भी सुनी नहीं गई. गांव के सभी लोग ग़रीब थे.

धीरे-धीरे उस गांव में भी तरक़्की पहुंची. लोगों को चार पैसे का आसरा होने लगा. हिन्‍दुओं को लगा कि‍ चलो एक मंदि‍र बनाया जाए, मुसलामानों को भी लगा कि‍ गांव में एक मस्‍जि‍द तो होनी ही चाहि‍ए. पर दोनों को लगता कि‍ कहीं इसे भड़काने वाली बात तो न माना जाएगा ! आख़ि‍र फ़ैसला हुआ कि‍ हिन्‍दुओं वाली तरफ का मंदि‍र उसी तरफ के मुसलमान बनाएंगे और, मुसलमानों की तरफ एक मस्‍जि‍द उसी तरफ वाले हि‍न्‍दू बानएंगे. यह भी तय रहा कि‍ बनाने वाले ही उनका रख-रखाव भी करेंगे. 

तरक़्की तो उन्‍होंने यूं भुगत ली. पर अब मंदिर और मस्‍जि‍द के कंगूरों पर गि‍द्ध बैठने लगे हैं.
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