रविवार, 24 फ़रवरी 2013

(लघुकथा) निरर्थक


कल तक की मध्यवर्गीय कॉलोनी में एक बहुत बड़े घर के बाहर आपने लॉन में  एक आदमी आरामकुर्सी पर बैठा हुआ सुबह का अख़बार पढ़ रहा था. वहीं पास ही उसकी चमचमाती कार खड़ी थी. इलाके के नेता जी ने उधर से गुजरते हुए प्रश्नवाचक मुद्रा में अपने पिछलग्गू की ओर देखा. उसने हामी में सिर हिलाया और नेता जी को बताना शुरू किया -''साहेब, लोगों के काम-धंधे अच्छे चल रहे हैं, इनके बच्चे बड़े अंग्रेज़ी स्कूलों में जाते हैं. यहां की सड़कें शीशे जैसी बन गई हैं. पीने के पानी और सीवर की पाइपलाइन अलग कर दी गई हैं. नलों में मिनरल वॉटर आता है, हर मोहल्ले में फ़्री प्राइवेट अस्पताल हैं. इनके गांवों में अब किसान भी आत्हत्याएं नहीं करते. बिजली 24 धंटे आती है. शहर में अपराध नहीं के बराबार होते हैं, पुलिस भी सभी केस दर्ज़ करके तुरंत कार्रवाई करती है.  दफ़्तरों में बाउ लोग बिना पैसा मांगे काम करने लगे हैं …''

''बस बस बस...'' - चिल्लाते हुए नेता जी की नींद खुल गई. पत्नी ने पूछा कि क्या हुआ कोई बुरा सपना देखा

नेता जी की जान में जान आई -'' हां, भागवान कितना भयंकर सपना था, मैंने देखा कि मेरी तो ज़रूरत ही नहीं रह गई थी.'' कह कर चैन की सांस ले नेता जी फिर ऊंघने लगे.
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शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

(लघुकथा) हमशक्ल



बहुत साल पहले, बहुत से औरों की ही तरह वह भी पेट का सवाल लेकर गांव से शहर चला आया था. शुरू-शुरू में कुछ छोटा-मोटा काम हाथ लगा फिर धीरे-धीरे एक नौकरी जमा ली थी उसने. परिवार भी हो चला था. यहां-वहां किराए के मकानों में रहता रहा. मकान मालिक आए दिन उसे  मकान बदलने को कहते रहते, उनमें  से कुछ डरे हुए मकान मालिक होते थे तो कुछ किराया बढ़ाने का लालच पाले रहते थे. बहुत तंग आ गया था वह आए दिन यूं सामान लिए घूमते-घूमते. किस्मत ने पासा पलटा और एक दिन शहर की डेवलेपमेंट अथॉरिटी का फ़्लैट उसे मिल गया.  प्रापर्टी डीलरों से बचते-बचाते उसने फ़्लैट का कब्जा लिया और उसमें शिफ़्ट कर गया. उसकी ज़िंदगी का ये सबसे बड़ा काम था.

कुछ साल बाद जब वह सैटल हो गया तो उसे लगा कि मां को एक बार अपने नए फ़्लैट पर ज़रूर बुलाना चाहिए. मां आई तो सही पर गांव की खुली हवा में रहने वाली उसकी मां को यहां दम घुटता सा लगता. एक दिन सुबह दूध के लिए जाते समय उसने मां को भी साथ ले लिया कि चलो मां की भी कुछ टहल-कदमी हो जाएगी.

'बेटा, यहां सभी मकान देखने में एक से ही लगते हैं.'- मां ने  फ़्लैटों की कतारें देखते हुए कहा.

'हां मां.'

'और देखो तो, इनमें रहने वाले लोगों की शक्लें भी एक दूसरे से एकदम मिलती हैं. है न. '- मां ने  बेटे की ओर  देखते हुए कहा. वह दूध का डोलू हि‍लाते हुए सिर झुकाकर चलता रहा.
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बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

(लघुकथा) बजट


नेता-वि‍पक्ष पर गाज गि‍री तो उन्‍हें अपने पद से स्‍तीफा देना पड़ा. अब नए की ढूंढ मची. जहां एक तरफ हर कोई खींचतान करने लगा तो वहीं दूसरी तरफ हर कोई धोती नुचैया भी होने लगा. नादि‍रशाही से डरी हाई कमान ने एक भौंदू नेता ढूंढा और उसके भागों छीका तोड़ उसे नि‍र्वि‍वाद नेता-वि‍पक्ष नि‍र्वाचि‍त करवा दि‍या. पर सि‍र मुंडाते ही ओले पड़े, पता चला कि‍ उसी दि‍न तो बजट पेश होने वाला था. ‘और कुछ हो न हो, अखबार-टी.वी. वाले ज़रूर पूछेंगे कि‍ आपकी नज़र में बजट कैसा रहा’- नेता ने सोचा.

नेता जी ने पी.एस. को पकड़ा और उसे बाथरूम में ले गए, धीरे से फुसफुसाए कि‍ गुरू बताओ ऐसे में मैं क्‍या करूंगा. पी.एस. सीज़न्‍ड था उसने बताया –‘सर, बजट तीन तरह का होता है. अच्‍छा, बुरा या न्‍यूट्रल. अगर बजट अच्‍छा हुआ तो आप कहना ये महँगाई बढ़ाने वाला बजट है जि‍से अगले चुनाव ध्‍यान में रख कर बनाया गया है. अगर बजट बुरा हुआ तो कहना कि‍ यह बजट आम आदमी वि‍रोधी तो है ही इससे वि‍कास भी अवरूद्ध हो जाएगा. और अगर बजट न्‍यूट्रल हुआ तो कहना कि‍ बजट में आम आदमी के लि‍ए कुछ भी नहीं है यह वि‍देशी दबाव में बनाया गया बजट है.’

नेता जी याद करने की मुद्रा में सोचने लगे तो पी.एस. ने ढाढस बंधवाया –‘सर, अगर आप जवाब देते हुए भूल जाएं कि‍ कि‍स तरह के बजट के लि‍ए कि‍स तरह का जवाब देना है तो, आप इनमें से कोई भी जवाब दे दीजि‍ए कुछ फ़र्क नहीं पडेगा, कोई भी जवाब कि‍सी भी तरह के बजट के साथ फ़ि‍ट हो सकता है. आजतक ऐसा ही होता आया है.’ फि‍र दोनों ने खीस नि‍पोर दी.
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शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

लड़कि‍यॉं



लड़कि‍यॉं,
बस लड़कि‍यॉं होती हैं.

घंटों,
घीर-गंभीर हो
मॉं के दुपटृटे ओढ़ खेलती हैं,
मुस्‍कुराती हैं,
और फि‍र यकायक
खि‍लखि‍ला के हँस देती हैं.

लड़कि‍यॉं,
बस लड़कि‍यॉं होती हैं.

सड़क पार करती हैं तो
सड़क के ठीक बीच जा ठि‍ठकती हैं
गाड़ि‍यां उन्‍हें बचाते-बचाते बड़ी मुश्‍कि‍ल से रूकती हैं,
वे कसमसा कर मुस्‍कुराती हैं
भाग कर सड़क पार कर जाती हैं.

फूलों के गुच्‍छों सी दि‍खती हैं,
डलिया सी
महकती हैं
चहकती हैं,
कभी छमक-छमक तो कभी गमक-गमक
यहॉं वहॉं चलती हैं,
बस मॉं से मचलती हैं.

जो,
घर में आती हैं
पूरे घर को खुशि‍यों से भर देती हैं,
घर से जाती हैं तो
ऑसुओं से भर जाती हैं.
बाक़ी,
...चुपचाप कोखों में मर जाती हैं

लड़कि‍यॉं,
बस लड़कि‍यॉं होती हैं.

 
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सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

(लघुकथा) जंगल



उसकी माँ पुराने ज़माने की थी. जब भी परिवार का कोई, अस्पताल में भर्ती होता तो उसकी माँ अस्पताल पहुंचते ही आसपास के लोगों से बातचीत शुरू कर देती चाहे मरीज़ हों या उन्हें देखने वाले. वार्ड बॉय हो या नर्स, आगे बढ़-बढ़ के सबसे बात करती. डॉक्टर आते तो उन्हें भी एक बात पूछने पर चार  बताती. उसके बच्चों को यह सब पसंद नहीं था. एक दिन बेटे ने टोक दिया.
 
'बेटा जंगल में जब जानवर कहीं जाते हैं न, तो इकट्ठे चलते हैं. इकट्ठे चलने से उनमें हिम्मत बनी रहती है. यहां अस्पलातों में भी लोग अकेले ही होते हैं, उनका साथ देने से उनकी भी हिम्मत बढ़ती है. ये अस्पताल हमारे जंगल हैं.'- मां ने बेटे को समझाया.


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