गुरुवार, 7 फ़रवरी 2013

(लघुकथा) छोटू




वाह गांव से नया-नया शहर आया था. उसके कि‍सी रि‍श्‍तेदार ने उसे हमारे दफ़्तर में, प्राइवेट सि‍क्‍योरि‍टी एजेंसी के गार्ड की ड्यूटी पर लगवा दि‍या था. यह दफ़्तर एक बहुमंज़ि‍‍ला इमारत में था. उसका बदन छरहरा था और वह पांच फुट का सा लगता था. सि‍क्‍योरि‍टी एजेंसी की वर्दी और टोपी उसके साइज़ से बड़े जान पड़ते थे. दफ़्तर के चपरासी- ड्राइवर वगैहरा आते-जाते उससे हंसी मज़ाक कर लेते.  वह दफ़्तर में आने जाने वाले हर अफ़सर को गेट पर खुशी-खुशी सलाम करता. कुछ अफ़सर लोग बि‍ना उसकी तरफ देखे कभी-कभी जवाब में सि‍र भी हि‍ला देते थे. 

एक शाम, आफ़ि‍स से नि‍कलते हुए मैंने देखा कि‍ वह गेट के पास ही दीवार से पीठ टि‍काए ख़ड़ा था. आज वह वर्दी में नहीं था. उसने अपने गले में पड़े गमछे से मुंह पोंछते हुए मुझे ढीली सी नमस्‍ते की. उसकी जगह कोई नया सि‍क्‍योरि‍टी गार्ड साथ खड़ा था.  मैं रोज़ की तरह, जवाब में सि‍र हि‍ला कर गाड़ी की तरफ नि‍कल गया. पीछे-पीछे ड्राइवर भी आ गया. गाड़ी में बैठते हुए मैंने पूछा कि‍ क्‍या हुआ, आज वह लड़का इतना ढीला सा क्‍यों लग रहा था.

‘’कौन साब, वो छोटू ?’’ उसने सवाल पूछा. ‘’साब एजेंसी के ठेकेदार को आज ही पता चला कि‍ इसकी तो उम्र अभी अट्ठारह साल भी नहीं हुई है, इसीलि‍ए काम से नि‍काल दि‍या. सि‍क्‍योरि‍टी एजेंसी के गार्ड और घासीराम कोतवाल में कहां कुछ फरक है साब.’’- फि‍र गाड़ी को गेयर में डालते हुए उसने जवाब दि‍या.
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