मंगलवार, 25 जून 2013

(लघुकथा) पि‍ता







पि‍ता –‘अजी सुनती हो, हमारे बेटे को खेल-कूद और यारों-दोस्‍तों से कभी फ़ुर्सत नहीं रही, वो हमेशा से ही उछल कूद करने वाला हंसमुख बच्‍चा रहा है. यहां तक कि कभी कभी तो वो मुझ से भी मज़ाक कर लि‍या करता था. कॉलेज पास करने के बाद भी उसमें कोई खा़स बदलाव नहीं आया. ठीक है, उसे कुछ समय तक कोई बहुत बड़ी नौकरी नहीं मि‍ली पर फि‍र भी, अब उसे एक मल्‍टीनेशनल कंपनी में काम तो मि‍ल ही गया है न. तुम कह रही थी कि उसकी तन्ख्‍वाह भी बुरी नहीं है. पर कुछ समय से देख रहा हूं कि वह बुझा-बुझा सा रहता है, यार दोस्‍तों के साथ उठना बैठना भी कम कर दि‍या है उसने, कई बार तो उसे फ़ोन पर दोस्‍तों से लगभग लड़ते भी सुना है मैंने, कुछ चि‍ड़चि‍ड़ा सा भी हो गया है वो. क्‍या तुम्‍हें नहीं लगता कि वह तुनुक-मि‍जाज़ हो गया है और कई बार तो एक दम से गुस्‍सा करने लगता है ! ज़रा पूछना तो उसे, क्‍या बात है !’

मॉं –‘अजी पूछना क्‍या है, टेलीमार्केटिंग कंपनी में है, फ़ोन पर सारा-सारा दि‍न लोगों की झि‍ड़कि‍यां सुनेगा तो और क्‍या होगा जी!’
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गुरुवार, 20 जून 2013

(लघुकथा) मां



उनका भरा-पूरा छोटा-सा खुशहाल परि‍वार था, पति‍-पत्‍नी बि‍टि‍या और मां. वह एक मल्‍टीनेशनल में बड़ी सी नौकरी करता था. कंपनी ने तीन बैडरूम वाला फ़्लैट दे रखा था. पत्‍नी भी नौकरी करती थी पर बि‍टि‍या के जन्‍म के बाद से उसने नौकरी छोड़ दी थी. बि‍टि‍या सबकी बहुत लाड़ली थी उसने ज़ि‍द की कि‍ उसे एक कुत्‍ता चाहि‍ए. उसने समझाया तो सही पर मां-बेटी एक तरफ हो लीं. पत्‍नी ने भी सि‍फ़ारि‍श की –‘बच्‍ची की बात मान लो ना, कुत्‍ता रखने का मेरा भी बहुत मन है.'


हफ़्ते भर बाद, आखि‍र वे एक डॉग-डीलर के यहां चले ही गए. जो कुत्‍ता उन्‍हें पसंद आया, उसमें दि‍क़्कत ये थी कि‍ उस नस्‍ल के कुत्‍ते को अलग कमरा चाहि‍ए होता है. एक कमरा पति‍-पत्‍नी के पास था, तो एक-एक दादी और पोती के पास. ड्राइंग रूम में कुत्‍ता रखा नहीं जा सकता था. उनकी दुवि‍धा देख मां ने कहा –‘बेटा, शहर में रहते-रहते मेरा जी भर गया है, मैं गांव जाने की कहना ही चाह रही थी. बहू-बेटे ने खूब ना-नुकर की नहीं मां, हम तुमसे कमरा कैसे खाली करवा सकते हैं.लेकि‍न मां ने भी कुछ तर्क दि‍ए. कुत्‍ता बाद में लेने की बात कह कर वे घर चल दि‍ए.

मां के एक बार फि‍र कहने पर घर लौटते हुए रास्‍ते में, उसने मां के लि‍ए गांव की रेल-टि‍कट बुक करवा दी.
 

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सोमवार, 17 जून 2013

(लघुकथा) शरणार्थी



वह एक साम्‍यवादी देश में पैदा हुआ और वहीं पला वढ़ा. उच्‍चशि‍क्षा प्राप्‍त की. उसकी रूचि‍ लेखन में थी इसलि‍ए उसने लेखक बनने का नि‍र्णय लि‍या. उसके लेख पत्र-पत्रि‍काओं में प्रकाशि‍त होने लगे लेकि‍न  सरकारी तंत्र को वे पसंद नहीं आए, संपादकों ने उसे छापना बंद कर दि‍या. उसने पुस्‍तकें लि‍खने की ठानी. पहली पुस्‍तक प्रकाशि‍त होते ही प्रति‍बंधि‍त हो गई और उसे नज़रबंद कर दि‍या गया. यह बात दुनि‍या भर में फैल गई. संचार माध्‍यमों की, उसे स्‍वतंत्र कराने की मुहि‍म रंग लाई. सरकार ने उसे देश छोड़ने की शर्त पर रि‍हा कर दि‍या. लोकतंत्र के हामी एक बड़े देश ने उसे अपने यहां हाथोहाथ मानवीय आधार पर राजनैति‍क शरण दे दी. 
 
नए देश के एक वि‍श्‍ववि‍द्यालय में उसे पढ़ाने का काम भी मि‍ल गया. उसके जीवन में आया तूफ़ान थम गया.

एक सर्द शाम वह सि‍गरेट पीता हुआ भीड़ भरे बाज़ार से पैदल घर लौट रहा था. सामने से आते हुए एक आदमी ने उसे रोक कर सि‍गरेट जलाने के लि‍ए माचि‍स मांगी. उसने माचि‍स दे दी. अजनबी ने सि‍गरेट जलाते हुए पूछा –‘क्‍या आपके पास दो माचि‍स हैं?’ उसने कहा –‘यस कामरेड.’ अजनबी ने मुस्‍कुराते हुए वह माचि‍स संभाल कर अपनी जेब में रख ली और दोनों अपने-अपने रास्‍ते चले गए.
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बुधवार, 12 जून 2013

(लघुकथा) उम्र



उसे रि‍टायर हुए कुछ समय हो गया था. वह और उसके साथ काम करने वाला एक अन्‍य सहकर्मी, एक ही दि‍न रि‍टायर हुए थे. दोनों ने जवानी से रि‍टायरमेंट तक के कई साल एक साथ बि‍ताए थे. दोनों में बहुत अच्‍छी दोस्‍ती थी. रि‍टायरमेंट के बाद दोनों अलग अलग शहरों में सेटल हो गए थे. 

लंबे समय बाद आज वह उसे चि‍ट्ठी लि‍ख रहा था – ‘... बेटा-बहू दूसरे शहर में नौकरी करते हैं, बेटी भी शादी के बाद सुखी है. आशा है, तुम्‍हारे दोनों बच्‍चे भी बढ़ि‍या से जी रहे होंगे. उन्‍हें आशीर्वाद. और हां, तुमने बाल काले करने बंद कि‍ए या नहीं ? यार, मैं तो अभी भी बाल रंग ही लेता हूं. तुम भी हंसोंगे कि क्‍यों ? वो क्‍या है कि एक तो इसकी आदत सी ही हो गई है और दूसरे, बि‍ना बाल काले कि‍ए यूं लगता है कि जैसे कि‍सी वि‍धवा औरत का सा जीवन जीने की मज़बूरी हो – सफ़ेद कपड़े पहनो, बिं‍दी-टीका-सिंदूर न लगाओ, खि‍लखि‍ला के न हँसो, यहां-वहां न जाओ बगैहरा बगैहरा. बाल सफ़ेद क्‍या हुए कि लोगों को लगने लगता है कि हंयं ये बुढ़उ हंसा क्‍यों, देखो तो कैसे कपड़े पहनता है, ये वहां गया क्‍यों, ये क्‍यों कि‍या वो क्‍यों कि‍‍या, और भी न जाने क्‍या क्‍या बंदि‍शें भागी-दौड़ी चली आती हैं. ख़ैर, भाभी जी को हम दोनों की नमस्‍ते कहना और अपनी लि‍खना. सस्‍नेह.’
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