बुधवार, 30 दिसंबर 2015

(कवि‍ता) समय



जब जब गांव आती है
खुदाई की  मशीन,
डर जाता है खेत
सहम जाता है चूल्‍हा
हंसता है ताला.

पगडंडी-से पैण्‍डुलम के दूसरे सि‍रे पर बंधा शहर
ठठाता है
बुलाता है.

बस कुछ दि‍न और...
मुटा जाता है शहर
डर जाता है खेत
मर जाता है खेत.
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शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

(लघुकथा) चि‍प्स का पैकेट



उसकी उम्र तीन-चार साल थी. बाजार के कोने में एक दुकान बन रही थी जहां उसके मां-वाप ईंटें ढोने का काम कर रहे थे. वह वहीं अपने मां-बाप के आस-पास खेलता रहता. पास की दुकानों पर लोग आते-जाते, वह उन्‍हें देखता रहता. आने-जाने वालों के साथ बच्‍चे भी होते वह उन बच्‍चों को भी देखता. और देखता कि‍ दुकानों से लौटते समय उनके हाथों में अक्‍सर चमचमाते पैकेट होते. बच्‍चे उनमें से कुछ-कुछ नि‍काल कर खाते हुए गुजरते.

एक दि‍न पास की एक दुकान के आगे खेलते हुए उसने देखा कि‍ चि‍प्‍स का एक पैकेट दुकान के बाहर बाकी पैकेटों से अलग, नीचे पड़ा हुआ है. वह उस पैकेट को उठा लाया. उसे पैकेट खोलना नहीं आया तो मां के पास ले गया. उसकी मां ने पूछा कि‍ कि‍सने दि‍या. उसने इशारे से बताया कि‍ वहां पड़ा हुआ था. उसकी मां ने कहा कि‍ नहीं बेटा ऐसे कि‍सी दूसरे की चीज़ नहीं उठाते, जा इसे वहीं रख आ. बच्‍चा बात मान कर वह पैकेट वहीं रख आया.

ग़रीबी की यह उसको पहली ईमानदार सीख थी जो आगे चलकर, उसके बड़ा आदमी बनने में आड़े भी आ सकती थी.
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सोमवार, 2 नवंबर 2015

(लघुकथा) एफ़.आई.आर.



लाला बहुत परेशान था. उसने जगह-जगह फ़ोन करने के बाद फ़ैसला कि‍या कि‍ थाने जाना ही ठीक रहेगा. थानेदार को मि‍ला और अपनी आपबीती सुनाई कि‍ -साहब, मेरा सेल्‍समैन मेरा तेइस लाख रूपया लेकर भाग गया. दो नंबर का पैसा नहीं था साहब, तीन दि‍न की बि‍क्री का पैसा था. बैंक के सभी काम वही करता था. कल भी, और दि‍नों ही की तरह, रूपया लेकर बैंक में जमा करवाने गया था. पर न वह बैंक पहुंचा और न ही वापस आया. उसका मोबाइल बंद है. घर में ताला लगा है. उसे जानने वालों को उसके बारे में कुछ पता नहीं. उसके गांव से भी उसके बारे में कोई ख़बर नहीं. साहब, मुझे लगता है कि‍ वह मेरा पैसा लेकर भाग गया है. प्‍लीज़ उसे पकड़ि‍ए.

थानेदार और उसके डि‍प्‍टी ने उसकी बात ध्‍यान से सुनी और लाला को दि‍लासा देकर भेज दि‍या -‍ ठीक है तहकीकात करते हैं. आप नि‍श्‍चिंत होकर जाओ. एफ़.आई.आर. की कॉपी बाद में ले जाना.

लाला के जाने के बाद थानेदार ने सब-इन्‍सपेक्‍टर को कहा कि‍ -कल एक एफ़.आई.आर. लि‍ख लेना, लाला के नौकर की लाश फलां जगह पड़ी मि‍ली. अज्ञात लोगों के ख़ि‍लाफ़ लूट और हत्‍या का मामला दर्ज़ कर लि‍या गया है. तफ़्तीश जारी है. और बाक़ी देख लेना.- फि‍र थानेदार साहब बाहर नि‍कल गए. 
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शुक्रवार, 25 सितंबर 2015

(लघुकथा) शि‍कार



गांव में दोनों के घर साथ-साथ थे. पर दुश्‍मनी पुश्‍तैनी थी, कि‍सी को याद नहीं था कि‍ दुश्‍मनी कि‍स बात पर और कब से चली आ रही थी. दोनों घरों में आने वाली नई बहुएं भी बि‍ना कहे ही शीतयुद्ध की पैठ समझ जातीं और समय के साथ-साथ वे भी अपने-अपने दायरे बना लेती.

एक दि‍न, उन्‍हीं में से एक घर की बुजुर्ग महि‍ला अपने बेटे के साथ खेत की पगडंडी पर जा रही थी. सामने से, दूसरे घर का एक छोटा बच्‍चा अकेला खेलता हुआ डगमग-डगमग चला आ रहा था कि‍ यकायक ठोकर खा कर गि‍र पड़ा और रोने लगा. महि‍ला ने तेजी से डग भर कर बच्‍चे को उठा लि‍या और प्‍यार से चुप करा कर नीचे उतार दि‍या. बच्‍चा अपने घर की ओर चल गया.

साथ चल रहे बेटे को अपनी मां का व्‍यवहार समझ नहीं आया और कुछ हैरानी से देखता रहा. मां ने धीरे-धीरे कदम उठाते हुए कहा –‘बच्‍चा तो शेर का भी नि‍रीह ही होता है, बेटा. शि‍कार करना तो उसे सि‍खाया जाता है.

बेटे ने कुछ नहीं कहा, बस धीरे-धीरे मां के साथ चलता रहा.
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बुधवार, 16 सितंबर 2015

(लघुकथा) कि‍ताबें



वह कड़े जीवट वाला सीधा सा इन्‍सान था. नौकरी की खोज में गांव से शहर आया था. पढ़ने का शौक उसे पत्रकारि‍ता में ले गया. ईमानदारी से नौकरी की और उतनी तरक्‍की भी पायी जि‍तनी एक ईमानदार को मि‍लती है, इसलि‍ए पूरी ज़िंदगी तंगी में गुजारी. पर उसे कभी कि‍सी से कोई शि‍कायत नहीं रही. कि‍ताबें इकट्ठी करना, ख़रीदना, पढ़ना और उन्‍हें संजो कर रखना उसने कभी नहीं छोड़ा. कि‍ताबें ही उसकी दुनि‍या थीं. उसके पास हज़ारों कि‍ताबें थीं.

एक दि‍न, कि‍ताब से सि‍र उठा कर देखा तो पाया कि‍ बीमार रहने वाली पत्‍नी चल बसी है, इकलौता बेटा कहीं क्लर्की कर रहा है, बहू घर संभाल रही है. और वह अब ख़ुद बीमार रहता है. उस रात उसे नींद नहीं आई, वह पूरी रात करवटें बदलता रहा. सुबह, बेटे और बहू को अपने पास बि‍ठा कर उनसे बस इतना ही कहा–‘मेरे जाने के बाद, इन कि‍ताबों को यहीं रहने देना. इन्‍हें घर से मत नि‍कालना.
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गुरुवार, 3 सितंबर 2015

(लघुकथा) आढ़ति‍या



वह आढ़ति‍ये का इकलौता बेटा था. पि‍ता का, सब्‍ज़ी की आढ़त का अच्‍छा-ख़ासा काम था. मंडी में, कई सब्‍ज़ि‍यों और फलों के किंग माने जाते थे. बड़ी सी कोठी थी. कारें थीं. कई प्रापर्टी थीं. लोगों पर लाखों का उधार था. पि‍ता की सलाह थी कि‍ वह यही पुश्‍तैनी काम संभाल ले, पर उसे पि‍ता का यह काम पसंद न था. वह ख़ुद अच्‍छा पढ़ा-लि‍खा था. समय का फेर, पि‍ता की एक दि‍न मृत्‍यु हो गई. उसने सारा कारोबार और कई प्रापर्टी बेच कर एक हि‍ल स्‍टेशन से पहले, हाइवे के कि‍नारे एक बहुत बड़ा वॉटरपार्क बना लि‍या, जो कुछ ज्‍यादा नहीं चलता था. उसने कुछ कमरे बगल ही में डाल कर मोटल का बोर्ड भी लगा लि‍या. लेकि‍न दि‍न फि‍र भी न फि‍रे. अब उसने मोटल की कि‍चन को रेस्‍टोरेंट में बदल दि‍या. बात अब भी नहीं बन रही थी. कुछ-कुछ लोग तो आते पर इतनी कमाई भी नहीं हो रही थी कि‍ खर्चा ही नि‍कल जाता. वह काफी परेशान रहने लगा.

एक दि‍न उसके दादा उससे मि‍लने आए. उसकी हालत, उनसे छुपी हुई न थी. दादा ने उसे सलाह दी, जि‍से उसने पहली बार मानते हुए, वॉटरपार्क के पीछे की तरफ एक बड़ा सा मंदि‍र बनवा लि‍या. मंदि‍र का रास्‍ता, वॉटरपार्क के ठीक बीच से जाता था. बाहर, मंदि‍र के नाम का एक बड़ा सा द्वार टाइप बोर्ड लगवा दि‍या. हाइवे के बाईं ओर, दोनों दि‍शाओं में पंद्रह कि‍लोमीटर दूर तक, हर एक कि‍लोमीटर पर भी बोर्ड लगवाए जि‍न पर ‘प्राचीन मंदि‍र ___ कि‍लोमीटर दूर’ लि‍खा हुआ था. मंदि‍र तक पहुंचते-पहुंचते हर बोर्ड पर एक कि‍लोमीटर कम होता जाता था. बाहर, फ़्री-पार्किंग बहुत बड़ी करवा दी. मेन गेट के आस-पास चुन्‍नी, प्रसाद, माला, खेल-खि‍लौने बगैहरा की कुछ दुकानें खुलवा दीं और भाड़े के कई भि‍खारी बि‍ठा दि‍ए. धंधा चमक नि‍कला.

तब से, उसे दादा की सलाह की भी ज़रूरत नहीं रही.
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मंगलवार, 1 सितंबर 2015

(लघुकथा) शि‍क्षा

दूर कहीं कि‍सी देश में एक गांव था, दीन-दुनि‍या की बातों से अछूता. गांव, बाहर की दुनि‍या से एकदम कटा हुआ था. ऊपर खुला आसमान और नीचे हरी धरती ही गांव वालों की दुनि‍या थे.  गांव में हर तरह के लोग थे. अलग-अलग धर्मों से मि‍लते-जुलते से उनके तरह-तरह के वि‍श्‍वास थे. अपनी ज़रूरत की सभी चीज़े वे ख़ुद ही उगा लेते थे. सब मि‍लजुल कर रहते थे. गांव में कोई भी पढ़ा-लि‍खा इन्‍सान नहीं था. वे हर बात के लि‍ए गांव के एक सबसे बूढ़े आदमी से सलाह लेते और उसकी बात मानते. जब कभी कोई मुसाफि‍र उस गांव से गुजरता, गांव वाले उसे घेर लेते कि‍ वो कोई नई बात बताएगा, नई चीज़ें दि‍खाएगा. 

एक दि‍न गांव में, बाहर के कुछ लोग आकर ज़मीन की नपाई करने लगे तो गांव वालों ने कारण पूछा. उन्‍होंने बताया कि‍ सरकार ने फ़ैसला कि‍या है कि‍ उनके गांव में स्‍कूल बनाया जाएगा. गांव वालों ने जाकर यह बात खुशी-खुशी उस सबसे बूढ़े आदमी को बताई. यह बात सुन कर वह उदास हो गया और तब से चुप-चुप सा रहने लगा. एक दि‍न गांव वालों ने पूछा कि‍ बाबा तुम अब उदास क्‍यों रहते हो.

उसने कहा –‘मेरे बच्‍चो, अब तुम लोग मि‍लजुल कर नहीं रह पाओगे.’ इतना कह कर वह उठा और खेतों की ओर नि‍कल गया.
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रविवार, 23 अगस्त 2015

(लघुकथा) लेखक



उसे लि‍खने का बहुत शौक था. नौकरी तो थी पर उसमें, लेखक होने के बावजूद कोई इज्‍ज़त नहीं थी. कोई उसकी इस बात को भाव नहीं देता था कि‍ वह लेखक था. वह बचपन से ही कवि‍ताएं लि‍खता आ रहा था. उसे कवि‍ के बजाय लेखक कहलाना पसंद था. उसने अपनी कवि‍ताओं की डायरि‍यां बड़ी संभाल के रखी हुई थीं. अख़बारों में सूचनाएं पढ़ कर धीरे-धीरे उसने गोष्‍ठि‍यों में जाना शुरू कर दि‍या. वहां, वो तो सबको सुनता पर उसे कवि‍ता कोई न सुनाने देता. तभी उसे अपने जैसे दूसरे लोगों की एक बैठक के बारे में पता चला तो उसने वहां जाना शुरू कर दि‍या. वहां सभी एक दूसरे को कवि‍ताएं सुनाते थे. हर बार उसे बुलावा भी आने लगा. अब उसकी एक ही चाह थी कि‍ बस, एक बार कोई उसकी कि‍ताब छाप दे. पता करना शुरू कि‍या तो कुछ ले-दे कर कि‍ताबें छापने वाले भी मि‍ल गए.

उसने कुछ पैसे इकट्ठे करके कि‍ताब छपा ली. कि‍ताब बेचने के लि‍ए रि‍बन कटा, कुछ लोगों ने कुछ कॉपि‍यां ख़रीद भी लीं. प्रकाशक ने कुछ कॉपि‍यां रख कर बाकी उसे ही लौटा दीं कि‍ भई बेच लेना. अब वह हर गोष्‍ठी में अपनी कि‍ताब भी ले जाता और उसकी कॉपि‍यां वहीं नीचे बि‍छा देता. कभी-कभी कोई नया आदमी, एक-आध बार उलट-पलट कर देख भी लेता. एक दि‍न, गोष्‍ठी कराने वाले कवि‍ ने उसे कहा कि‍ भई इन्‍हें बाहर रखा करें तो बेहतर. अब वह बाहर ही कि‍ताबें बि‍छा कर बैठने लगा. फि‍र एक दि‍न, उसे गोष्‍ठी के लि‍ए बुलावा आना बंद हो गया.

कि‍सी से बातचीच कर, बैठक वाले दि‍न वहां पहुंचा तो उसने देखा कि‍ गोष्‍ठी कराने वाले कवि‍ ने बाहर, उसके बैठने वाली जगह पर तीन लेखक अपनी-अपनी कि‍ताबों के साथ बि‍ठा रखे थे.     
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