वह कड़े जीवट वाला सीधा सा इन्सान था. नौकरी की खोज में
गांव से शहर आया था. पढ़ने का शौक उसे पत्रकारिता में ले गया. ईमानदारी से नौकरी
की और उतनी तरक्की भी पायी जितनी एक ईमानदार को मिलती है, इसलिए पूरी ज़िंदगी
तंगी में गुजारी. पर उसे कभी किसी से कोई शिकायत नहीं रही. किताबें इकट्ठी
करना, ख़रीदना, पढ़ना और उन्हें संजो कर रखना उसने कभी नहीं छोड़ा. किताबें ही उसकी
दुनिया थीं. उसके पास हज़ारों किताबें थीं.
एक दिन, किताब से सिर उठा कर देखा तो पाया कि बीमार
रहने वाली पत्नी चल बसी है, इकलौता बेटा कहीं क्लर्की कर रहा है, बहू घर संभाल
रही है. और वह अब ख़ुद बीमार रहता है. उस रात उसे नींद नहीं आई, वह
पूरी रात करवटें बदलता रहा. सुबह, बेटे और बहू को अपने पास बिठा कर उनसे बस इतना
ही कहा–‘मेरे जाने के बाद, इन किताबों को यहीं रहने देना. इन्हें
घर से मत निकालना.’
00000
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें