शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

(लघु कथा) जीवन



वह लंबे समय बाद अपने पुश्‍तैनी गांव आया था. गांव आना अब कम ही होता है उसका. मां रही नहीं पि‍ता अकेले रहते हैं गांव में. वही अब खेती-बाड़ी देखते हैं.

सर्दी की धूप अच्‍छी खि‍ली हुई थी. आज घर में चहल पहल थी. कई रि‍श्‍तेदार इक्‍ट्ठा हुए थे. बातों के साथ-साथ, रसोई से बर्तनों की आवाजें आ रही थीं. आंगन में, पि‍ता के साथ चारपाई पर बैठा वह अपनी बेटी को भाग-भाग कर काम करते देख रहा था. आज उसकी इसी बेटी की सगाई का दि‍न था. ‘देखते ही देखते तेइस साल कैसे उड़ गए पता ही न चला. इसका जन्‍म, अभी कल की सी ही बात लगती है.’-उसने पि‍ता से कहा.

‘और ज़िंदगी के जो बाकी कुछ साल बचे हैं वे भी ठीक यूं ही मुट्ठी का रेत हो रहे हैं.’-उसके पि‍ता ने हुक्‍के का एक और कश लेते हुए धीरे से कहा.

दोनों चुप थे पर उनके बीच बात अब भी हो रही थी. 

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सोमवार, 27 अक्तूबर 2014

कवि‍ता :- बचपन



अजब फ़ि‍तरत है मेरी
कि‍
ठोकर खा कर गि‍रता भी हूं
तो
उठना सीखने से पहले
वहां भी खेल लेता हूं मैं.
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शनिवार, 18 अक्तूबर 2014

(लघुकथा) स्कूल



वार्षि‍क एक लाख रूपये तक की आमदनी वाले लोगों के बच्‍चों को बड़े-बड़े स्‍कूलों में दाखि‍ला देने की ख़बर पढ़ कर वह बहुत ख़ुश हुआ. ख़बर में ये भी लि‍खा था कि‍ फीस नाम मात्र की होगी और कि‍ताबें-वर्दी मुफ़्त मि‍लेंगे. वह एक ऐसे ही बड़े स्‍कूल के पास रहता था. उसने हि‍साब लगाया तो पता चला कि‍ सवा आठ हज़ार के वेतन के हि‍साब से तो वह भी आर्थि‍क रूप से पि‍छड़े वर्ग की श्रेणी में आ जाता है. उसने काग़ज़-पत्‍तर पूरे कर, अपना बच्‍चा उस स्‍कूल में दाखि‍ल करवा दि‍या. पड़ोस में मि‍ठाई बांटी. अब वह बहुत खुश था. अपने बच्‍चे को, एक दि‍न, बहुत बड़ा अफ़सर बनते साफ देख रहा था वह. 

भगवान जब देता है तो छप्‍पर फाड़ कर देता है. इधर बच्चे का दाखि‍ला हुआ, उधर कुछ ही महीनों बाद उसके मालि‍क ने उसका वेतन सौ रूपये बढ़ा दि‍या. उसने बच्‍चे के हाथ मुट्ठी भर टॉफ़ि‍यां भि‍जवाईं कि जा अपने दोस्‍तों के साथ खा लेना.

बच्‍चा दोपहर को स्‍कूल से एक चि‍ट्ठी लेकर लौटा कि‍ अब आपकी वार्षि‍क आमदनी ‍एक लाख रूपये से ज़्यादा हो गई है इसलिए फ़ीस माफ़ी वापस ली जा रही है. मुफ़्त के कपड़े-कि‍ताबें भी बंद. और अगले महीने से साढ़े नौ हज़ार की फ़ीस जमा कराना शुरू कर दो. 

वह चि‍ट्ठी बार-बार पढ़े जा रहा था पर समझ नहीं पा रहा था.   
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मंगलवार, 9 सितंबर 2014

(लघुकथा) व्यवहार



उसने पूरी जिंदगी नौकरी करते हुए गुजार दी. उनके एक बेटा और बेटी थे. बेटा कुछ छोटा-मोटा काम कर रहा था. बेटी की शादी की चिन्ता में पाई-पाई जोड़ते हुए वे सदा घुलते रहे. पैसे बचाने की गरज से हमेशा किराए के मकानों में रहे. आज बेटी की शादी का दिन भी आ ही गया. धीरे-धीरे इकट्ठे किये हुए सामान जुटाए. हैसियत के हिसाब से उधार लिया और जैसे-तैसे शादी निपटा ही दी. पर शादी मेँ ख़र्चा कुछ ज्यादा ही हो गया था.
सबके शादी-व्यवहार में उसने ज़िम्मेदारी सदा निभाई. और अब पत्नी के साथ बैठ, शादी में मिले लिफ़ाफ़े खोलते हुए उसे बार बार यही ख़्याल आ रहा था कि क्या लिफ़ाफ़ों में से इतने रुपए निकलेंगे कि उसका कर्ज़ उतर जाए. तभी उन्हें एक मोटा सा लिफ़ाफ़ा दिखाई दिया. उलट-पलट कर देखा, उस पर किसी का नाम नहीं था. खोल कर देखा तो उसमें काफी रुपए थे. उन्होंने ध्यान से देखा, रुपयों से भरे ऐसे ही कुछ और अनाम लिफ़ाफ़े अभी भी खोलने बाक़ी थे.

उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था. उनकी आंखें बस डबडबाई हुईं थीं.
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गुरुवार, 21 अगस्त 2014

(लघुकथा ) न्याय



जहांगीर ने कि‍ले के दरवाज़े पर एक घंटा टंगवा दि‍या था. जि‍स कि‍सी को फ़रि‍याद करनी हो तो वह घंटा बजा सकता था. एक दि‍न, एक ग़रीब आदमी घंटा बजाने पहुंचा तो उसे वकील ने रोक लि‍या –‘तुम्‍हें न अरबी आती है न फ़ारसी, सुल्‍तान से अपनी बात कहोगे कैसे.’ ग़रीब उसके पीछे हो लि‍या -‘ठीक है माई-बाप, तो आप ही मेरा मामला ठीक करवा दो.’

वो दि‍न है और आज का दि‍न, वकील तारीख़ पे तारीख़ दे रहा है, प्रोसीज़र पूरा ही नहीं हो पा रहा है कि‍ वो घंटा बजा सके. ग़रीब आदमी का सब कुछ अब वकील के पास है सि‍वाय उसकी लंगोटी के. वकील की नज़र अब उसकी लंगोटी पर भी है. लेकि‍न ग़रीब को भरोसा पूरा है कि‍ एक न एक दि‍न वो घंटा जरूर बजा पाएगा.

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