गुरुवार, 21 अगस्त 2014

(लघुकथा ) न्याय



जहांगीर ने कि‍ले के दरवाज़े पर एक घंटा टंगवा दि‍या था. जि‍स कि‍सी को फ़रि‍याद करनी हो तो वह घंटा बजा सकता था. एक दि‍न, एक ग़रीब आदमी घंटा बजाने पहुंचा तो उसे वकील ने रोक लि‍या –‘तुम्‍हें न अरबी आती है न फ़ारसी, सुल्‍तान से अपनी बात कहोगे कैसे.’ ग़रीब उसके पीछे हो लि‍या -‘ठीक है माई-बाप, तो आप ही मेरा मामला ठीक करवा दो.’

वो दि‍न है और आज का दि‍न, वकील तारीख़ पे तारीख़ दे रहा है, प्रोसीज़र पूरा ही नहीं हो पा रहा है कि‍ वो घंटा बजा सके. ग़रीब आदमी का सब कुछ अब वकील के पास है सि‍वाय उसकी लंगोटी के. वकील की नज़र अब उसकी लंगोटी पर भी है. लेकि‍न ग़रीब को भरोसा पूरा है कि‍ एक न एक दि‍न वो घंटा जरूर बजा पाएगा.

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18 टिप्‍पणियां:

  1. जरूर बजेगा । अच्छे दिन आयेंगे ।

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  2. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (22.08.2014) को "जीवन की सच्चाई " (चर्चा अंक-1713)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।

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  3. उम्मीद नहीं टूटनी चाहिए...बढ़िया कथा

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  4. फरियाद ऊपर तक पहुँचते पहुँचते,इस प्रतिक्रिया में,हम अपनी यादाश्त गवा बैठते है,
    ओर फिर घंटा बजता है-आवाज तक नहीं पहुँचती. इंसाफ मिल जाता है.

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  5. मतलब वकील ने उल्टा मुवक्किल का ही घंटा बजा दिया! :-)

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  6. आपके ब्लॉग को ब्लॉग एग्रीगेटर ( संकलक ) ब्लॉग - चिठ्ठा के "साहित्यिक चिट्ठे" कॉलम में शामिल किया गया है। कृपया हमारा मान बढ़ाने के लिए एक बार अवश्य पधारें। सादर …. अभिनन्दन।।

    कृपया ब्लॉग - चिठ्ठा के लोगो अपने ब्लॉग या चिट्ठे पर लगाएँ। सादर।।

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  7. आज नहीं तो कल महकेगी ख़्वाबों की महफ़िल

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  8. घंटा क्या घंटा बजा पायेगा ? :-(

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  9. लंगोटी नजर करके ही सही, एक दिन घंटा जरूर बजायेगा.

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  10. वकील का चूल्हा ऐसे फर्यादी की आग पर जलता है।

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