सबके
शादी-व्यवहार में उसने ज़िम्मेदारी सदा निभाई. और अब पत्नी के साथ बैठ, शादी में मिले लिफ़ाफ़े खोलते हुए
उसे बार बार यही ख़्याल आ रहा था कि क्या लिफ़ाफ़ों में से इतने रुपए निकलेंगे कि
उसका कर्ज़ उतर जाए. तभी उन्हें एक मोटा सा लिफ़ाफ़ा दिखाई दिया. उलट-पलट कर देखा,
उस पर किसी का नाम नहीं था. खोल कर देखा तो उसमें काफी रुपए थे.
उन्होंने ध्यान से देखा, रुपयों से भरे ऐसे ही कुछ और अनाम
लिफ़ाफ़े अभी भी खोलने बाक़ी थे.
उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था. उनकी आंखें बस डबडबाई हुईं थीं.
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काश !
जवाब देंहटाएंआननद दायक।
जवाब देंहटाएंसुखान्त
जवाब देंहटाएंइसे कहते हैं सशक्त लघुकथा।
जवाब देंहटाएंकथा में कोई नयापन नहीं है ! बिटिया इक बोझ सी ! उसकी शादी की चिंता ! उसकी विदाई के साथ कुछ देने का जुगाड़ करते अपना वर्तमान और सहज जीवन स्वाहा :(
जवाब देंहटाएंबहरहाल इसका सार तत्व है दोगे सो पाओगे !
पिता की डबडबाई आँखों ने समझ लिया कि बेनाम लिफ़ाफे बेटी ने रखे हैं (मेरी कल्पना ने एक नई सोच को जन्म दिया) लघु कथा की अंतिम पंक्ति में सारा सार छिपा है !
जवाब देंहटाएंकितना सुखमय समापन !
जवाब देंहटाएंव्यवस्था नहीं बदलेगी तो कोई नयापन कहाँ से आएगा
जवाब देंहटाएंयही क्या कम है कि अपने टुकड़े ने दर्द को यूँ समझा
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