बुधवार, 27 मार्च 2013

(कविता) कोपलें


छुटपन में,
ले कर कुछ दाने गेहूं के
बो देते थे कहीं भी.

फि‍र कुछ कुछ पानी डाल
करते थे इंतज़ार
पौधे उगने का.

रोज़ सुबह उठ
सबसे पहले जा देखते थे
कि‍ पौधा आज तो उगा ही होगा.

... एक दि‍न जब ज़मीन से
हरी कोपलें फूटती थीं तो
हैरानी से देखते हुए खुश होते  और
धीरे से खींच लेते थे उन्‍हें मि‍ट्टी से बाहर
ये देखने के लि‍ए कि
नीचे दबे गेहूं के दाने अब कैसे हैं.

आज सोचता हूं तो लगता है
उफ़्फ, वो कैसे कर डालते थे हम!
शायद हम अनजान थे.

पर
देखता हूं आज;
अर्थ जानने के बावजूद
कैसे क्रूर हो सकते हैं लोग !

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रविवार, 24 मार्च 2013

(लघुकथा) घोड़ा


बहुत पुरानी बात है. एक छोटा सा देश था. उस देश की आर्थिक स्थि‍ति बहुत ख़राब थी जबकि वहां का वि‍त्‍तमंत्री रोज़ अपना घोड़ा और कोड़ा लेकर टैक्‍स इकट्ठा करने नि‍कलता था. राजा चिंति‍त हुआ, उसने वि‍त्‍तमंत्री को अपने महल बुलाया और पूछा कि ऐसा कब तक चलेगा. वि‍त्‍तमंत्री ने कहा –‘महाराज एक कोड़ा और दे दो मुझे, और फि‍र देखो.’
राजा ने कहा –‘दि‍या गया.’
वि‍त्‍तमंत्री ने याद दि‍लाया –‘पर महाराज, मेरे पास कोड़ा ख़रीदने के लि‍ए पैसे नहीं हैं.’
ठीक है, इसका घोड़ा बेचकर इसे कोड़ा ले दो.’– राजा ने सेवादारों को आदेश दि‍या और शि‍कार पर चला गया.
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गुरुवार, 21 मार्च 2013

(लघुकथा) अंडा


वह अकेला रहता था. छोटा-मोटा काम कर अपना पेट पाल रहा था. उसे कोई बहुत अच्छा खाना बनाना तो नहीं आता था पर फिर भी वह अपना खाना ख़ुद बना  ही लेता था. एक दिन वह ब्रेकफ़ास्ट में आमलेट बनाने लगा तो उसे लगा कि अंडे में शायद चूज़ा बन रहा था. उसने यह सोच कर अंडा एक तरफ रख दि‍या कि चलो देखें क्‍या होता है. कुछ दि‍न बाद उस अंडे में से वाकई एक चूज़ा नि‍कल आया. उसे लगा कि ये भी अच्‍छी रही. अगर मुर्गी हुई तो आगे चलकर अंडे मि‍लेंगे और अगर मुर्गा नि‍कला तो एक दि‍न चि‍कन की दावत हो जाएगी.


वह चूज़े को रोज़ एक टोकरी के नीचे ढक कर काम पर चला जाता. चूज़ा बड़ा होने लगा तो उसने पाया कि वह एक मुर्गा था. फि‍र मुर्गे ने देखते ही देखते नि‍यम से रोज़ सुबह बांग देना शुरू कर दि‍या. बल्‍कि वह खुद भी मुर्गे की बांग सुन कर ही उठने लगा. एक दि‍न सुबह मुर्गे ने बांग नहीं दी, वह उठने में लेट हो गया. उसने देखा कि मुर्गा अभी भी सो रहा था. उसके हि‍लाने-डुलाने पर भी वह नहीं जगा. उसके पड़ोसी ने सलाह दी कि शायद मुर्गा मर गया. अब वह बहुत दुखी था. पड़ोसी ने ढाढस बंधाया - ‘ मैं तुम्‍हारा लगाव समझ सकता हूं, पर कोई बात नहीं, दूसरा पाल लेना.’

‘नहीं, मैं तो सोच रहा था कि अगर इसके मरने का मुझे ज़रा भी शक होता तो मैं इसे कल ही बना कर खा लेता.’ – मुर्गे को टांग से उठाकर बाहर ले जाते हुए उसने भारी मन से कहा.
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बुधवार, 20 मार्च 2013

(लघुकथा) एफ़. आई. आर.

एक नेता जी टहलते हुए उधर से नि‍कल रहे थे कि मजमा सा लगा देख ठि‍ठक गए. दूर से उन्‍हें लगा कि बहुत से वकील लोग कि‍सी को घेरे हुए हैं. उनकी उत्‍सुकता और बढ़ गई. सोचा, कहीं फि‍र कोर्ट-कचेहरी की हड़ताल तो नहीं ! पर ऐसा कुछ सुना तो नहीं था. सो, उधर को ही हो लि‍ए कि चलो देखें तो सही, माजरा क्‍या है.

वहां पहुंचते ही उनकी आओ जी, आओ जीहोने लगी. उन्‍होंने देखा कि भीड़ के बीच कुछ जज साहेबान भी खड़े थे. और उन सबके बीच खड़ा था एक पुलि‍सवाला. सबने मि‍लकर नेता जी को भी पुलि‍सवाले के बगल में खड़ा कर दि‍या. और फि‍र कि‍सी ने माइक पर भाषण शुरू कि‍या –‘भाइयो और बहनो, जब भी कि‍सी कानून की बात चलती है तो उस मुद्दे से जुड़ी कानूनी कि‍ताबें पढ़ते-पढ़ते हम हलकान हो जाते हैं. पर धन्‍य है हमारी ये कानून फ़ैक्‍ट्री जो बि‍ना रूके रोज़ नए-नए कानून बनाती जाती है.कहते हुए उसने नेता जी की ओर इशारा कि‍या. नेता जी की बत्‍तीसी दि‍खने की देर थी, तालि‍यां ही तालि‍यां पि‍टीं.

भाषण चालू था - कभी, कहीं, कोई भी अपराध हो तो क्‍या मज़ाल कि एफ़. आई. आर. लि‍खने से पहले ये हवलदार जी सोचने के लि‍ए पलक भी झपकें कि उस अपराध पर कि‍स कानून की कौन सी धारा लगेगी. कानून और धारा खटाक से लगा देते हैं. तो आइए, इन दोनों महानुभावों के सार्वजनि‍क सम्मान समारोह को सफल बनाएं.उसके बाद, नेता जी और पुलि‍सवाले को दे दनादन मालाएं पहनाई जाने लगीं.
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शनिवार, 9 मार्च 2013

(लघुकथा) और जा

उसके घरवाले कुछ समय से देख रहे थे कि‍ शहर में अपराधों की बढ़ती ख़बरें सुन और देख कर वह बहुत वि‍चलि‍त हो जाता. जैसे ही कोई इस तरह की ख़बर टी0 वी0 पर आती तो वह चैनल बदल देता. और कई बार तो घर की घंटी बजने पर, वह घर में होते हुए भी कहलवा देता -‍ कह दो कि‍ मैं घर पर नहीं हूं. फ़ोन की घंटी बजने पर भी वह आशंकि‍त हो उठता और आमतौर से फ़ोन पर बात करने से भी कतराता. वह पहले ऐसा नहीं था. बल्‍कि‍ अभी हाल ही में, अपराध के वि‍रूद्ध हुए एक जनव्‍यापी आंदोलन में तो उसने बढ़-चढ़ कर हि‍स्‍सा लि‍या था और रि‍ले भूख हड़ताल पर भी बैठा था.

एक दि‍न उसकी चिंति‍त मां ने प्‍यार से पूछा -बेटा क्‍या बात है, परेशान सा क्‍यों रहता है और आजकल धरने प्रदर्शनों में भी नहीं जाता?’
 
तुभ भी क्‍या बात करती हो मॉं. अपना कोई काम-धंधा भी देखूं या नहीं... जि‍से देखो वही मुंह उठा कर चला आता है बुलाने कि‍ चलो वहां नारे लगाने हैं. यार दोस्‍तों ने तो मोमबत्‍तीवाला बाउ के नाम से पुकारना शुरू कर दि‍या है...- कहता हुआ वह ज़ोर से दरवाज़ा भड़भड़ा कर बाहर चला गया.
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रविवार, 3 मार्च 2013

(लघुकथा) जीवनोत्सव



एक पहुंचे हुए संत थे. सांसारि‍क मोहमाया से दूर, प्रभुभक्‍ति‍ में लीन रहते. एकांतवास ही उनकी जीवनशैली थी. एक बार, उनका एक भक्‍त बहुत दुखी मन से उनके पास पहुंचा. संत ने उसे बैठाया और पूछा कि‍ क्‍या हुआ. उसने बताया कि‍ उसका जवान बेटा नहीं रहा. कुछ पल के मौन के बाद वे बोले कि‍ जीवन एक उत्‍सव है और उसे उत्‍सव के अवसर पर अवसाद रहि‍त रहना चाहि‍ए. भक्‍त के चेहरे पर असमंजस के भाव थे.

उन्‍होंने आगे कहा- जब बच्‍चे का जन्‍म होता है तो परि‍वार प्रसन्‍न होता है, प्रसन्‍न्‍ता व्‍यक्‍त करने के वि‍भि‍न्‍न उपक्रम करता है. कुछ समय उपरांत वह बच्‍चा साथि‍यों के जन्‍मदि‍वस कार्यक्रमों में सम्‍मि‍लि‍त होता है. आगे चलकर वह अपने उन्‍ही मि‍त्रों के वि‍वाह समारोहों में सम्‍मि‍लि‍त होने लगता है. फि‍र मि‍त्रों के बच्‍चों के जन्‍मदि‍न मनाए जाते हैं और आगे चलकर उन बच्‍चों के वि‍वाह संपन्‍न होते हैं. फि‍र, मि‍त्रों के माता-पि‍ता के देहांत के समाचार मि‍लते हैं और एक दि‍न उन्‍हीं मि‍त्रों की अंत्‍येष्‍टि‍यों में भी सम्‍मि‍लि‍त होने का समय प्रारम्‍भ होता है. जन्‍म से मृत्‍यु तक की जीवन-यात्रा एक उत्‍सव है और जो कुछ इस बीच घटि‍त होता है वे तो इस उत्‍सव को मनाने की प्रक्रि‍याएं मात्र हैं. पुत्र के जाने पर शोक कैसा. जीवन अनंत उत्‍सव है.

भक्त, वैराग्‍य से अनभि‍ज्ञ नहीं था किंतु वि‍रक्‍ति‍ से ज्ञान की ऐसी धारा भी बहती है, इसका सामना उसने आज पहली बार कि‍या था.
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