गुरुवार, 31 जनवरी 2013

(लघुकथा) पुण्‍य




उसके पिता बहुत बीमार रहने लगे थे और देखते ही देखते एक दिन वो चल बसे. वह बहुत दुखी था. सबने समझाया - 'कुछ नहीं हो सकता, जिसकी जितनी लिखी है उतनी ही जीता है. अब तुम उनका संस्कार अच्छे से करो, बस यही उनके साथ जाएगा.'

उसे बात जम गई, और उसने फ़ैसला किया कि दुनिया भर को भोज करवाने के बजाय क्यों वह अनाथालय में एक दिन का खाना खिलवाए. उसने बात की तो उसे बताया गया कि एक रात्रिभोज का ख़र्चा    ढाई हज़ार रूपये आएगा पर अगर वह स्पेशल खाना खिलवाना चाहे तो कुल तीन हज़ार रूपया लगेगा. वह तीन हज़ार रूपये निकाल कर दे आया कि भई जब खाना खिलाना ही है तो क्यों अच्छे से ही खिलाया जाए, पुण्यकार्य में पाँच सौ रूपये क्या देखने.

उस रात अनाथालय में, खाने से पहले दिवंगत आत्मा की शाँति के लिए विशेष प्रार्थना की गई और पाँच सौ रूपये के दो मुर्गे अलग से काटे गए.
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बुधवार, 30 जनवरी 2013

(लघुकथा) भालू



एक भालूवाला था. उसके पास एक भालू था. वह सारा दिन भालू को यहाँ-वहाँ नचा कर चार पैसे कमाता और रात को, दोनों उसी पैसे का कुछ-कुछ खा-पीकर सो रहते. एक दिन कहीं से पशु रक्षा समिति के कुछ कार्यकर्ता आए और उसका भालू ले भागे. वह डुगडुगाता हुआ पीछे-पीछे भागा और लगा चिरौरियां करने. तो एक ने उसे कुछ समझाया.

उसने एक पेड़ के नीचे ठीहा लगाया और अल्म्यूनियिम, लोहे, पीतल, ताँबे के कुछ खाली गंड्डे-ताबीज ख़रीद लिए जिनमें उसी भालू का एक-एक बाल भर कर, काले धागे से बाँध, मंत्र फूँक के अब वह दीन-दुखियों को दे देता है. दीन-दुखियों और भालू के बालों की स्प्लाई पशु रक्षा समिति करती है, शाम को कुल जमा रकम में से कर्ता-प्रमुख का हफ़्ता वह आस्था से पहुँचा आता है.

अब लोग उसे भालूवाला बाबा के नाम से जानते हैं.

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रविवार, 27 जनवरी 2013

(लघुकथा) बिल्ला




पागलखाने में एक क़ैदी था. देखने में खाते-पीते घर का लगता था, रोज़ सुबह शेव करता, नहा-धो कर पूजा-पाठ करता, सलीके से साफ़-सुथरा कमीज़-पायजामा पहनता और फिर छाती पर, छाती से भी बड़ा दिखने वाला रिबन का एक रंग-बिरंगा बिल्ला लगाता. शान से, कमरे से बाहर निकलता, दाएं-बाएं देखता और मिलिट्री के रंगरूटों की तरह सीना तान, मुँह उठा, लंबे-लंबे डग भरता हुआ बैरक के गलियारे से निकल जाता. अगर वार्डन भी उसे कहीं जाने से रोकता-टोकता तो वह कुछ बोलता नहीं था बस उसे कड़क उंगली से अपना बिल्ला देखने का इशारा करता और बिना कुछ कहे आगे निकल जाता. उसका बिल्ला देख, बाक़ी निवासी भी सिर झुका कर उसे रास्ता दे देते थे. उसका जीवन निर्बाध चल रहा था. एक दिन, पुराने वार्डन का तबादला हो गया उसकी जगह नया वार्डन आया.

उसने रोज़ की तरह आज भी अपना बिल्ला लगाया और मुँह उठाकर बैरक से निकल गया. वार्डन ने उसे रोका तो वह हमेशा की ही तरह कुछ बोला नहीं, बस उसे भी उंगली से अपना बिल्ला देखने का इशारा किया और आगे निकल गया. वार्डन बहुत कड़क था और उसके हाथ में जो सोटा था वो तो उस वार्डन से भी ज़्यादा कड़क था, सूत के उसके पिछवाड़े पर जो एक टिकाया तो वह बाप-बाप चिल्ललाता हुआ सिर पर पाँव रख कर भागा... इसी भागमभाग में उसकी नींद टूट गई.

उसने पाया कि सूरज निकल आया था और वह बिस्तर पर औंधे मुँह बचाओ-बचाओ चिल्लाता हुआ यूँ उछल रहा था जैसे गर्म तवे पर पानी की तड़तड़ाती बूँदें. उसके दोनों हाथ अभी भी पिछवाड़े पर ही जमे हुए थे. तभी उसकी नज़र सिरहाने अल्मारी में रखे उस बड़े से रंगीन बिल्ले पर पड़ी जिसे लगा कर शाम को उसे 'बाज़ार कमेटी' के प्रोग्राम में जाना था. उसने वह बिल्ला उठा क यूं दूर फेंका मानो उसमें बिच्छू लिपटे होने की ख़बर मिली हो.

फिर धीरे से इधर-उधर देखा और शुक्र मनाया कि उसकी पत्नी कमरे में नहीं थी.
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शुक्रवार, 18 जनवरी 2013

(लघुकथा) सुसाइड नोट




नदी पर पुल से गुजरते किसी ने पुलिस कंट्रोल रूम को सूचना दी कि पुल के ठीक बीच, किनारे पर एक जोड़ी जूते पड़े हुए हैं. पुलिस का अंदेशा ठीक निकला, एक जूते में सुसाइड नोट मिला जिसमें कुछ यूं लिखा था.



- ''ऐसे ही दुखी हूँ इसलिए नदी में कूद कर जान दे रहा हूँ. मेरा हॉटमेल पर एक ईमेल अकाउंट है जिसका लॉग-इन 'जय हो 1' और पासवर्ड 'क्यों जय हो 1' हैं. उसकी स्काइड्राइव में कुछ अनर्गल फ़ाइलें पड़ी हैं उन्हें डिलीट करके सभी एड्रेस-बुक वालों को मेरे जाने की ख़बर दे देना. एक ईमेल अकाउंट इंडियाटाइम्स पर भी है, लेकिन ये सर्विस जल्दी ही बंद होने वाली है इसलिए उसे जाने दें, इस सिलसिले में कुछ नहीं करना है. एक एक अकाउंट याहू और जीमेल पर भी हैं पर उन्‍हें मैं यूज़ नहीं कर रहा था. फ़ेसबुक पर भी एक आई-डी है, उसके लॉग-इन और पासवर्ड भी हॉटमेल वाले ही हैंउसकी फ़्रेंडलिस्ट में यूं तो हज़ारों नाम हैं पर उनमें से ज्यादातर का कोई ख़ास मतलब नहीं है बस एक अपडेट वहां दे देना कि 'जय हो' अब नहीं रहा इसलिए फ़्रेंडरिक्वेस्ट और मैसेज न भेजें. चाहो तो यह अकांउट भी बाद में डिलीट कर देना. मोबाइल में दो सिम कार्ड हैं, दोनों प्रीपेड हैं इसलिए चिंता की कोई बात नहीं, जब बैलेंस ख़त्म हो जाएगा तो प्रॉपर्टी बेचने वालों के एस.एम.एस. आने अपने-आप बंद हो जाएंगे. उसमें कुछ फ़ुकरों वाला म्यूज़िक भी है. और अंत में, मेरे बहुत से दुश्मन हैं मुझे आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप किसी पर भी लगा कर आराम से साबित किया जा सकता है. पुलिस जी भूलना मत, उन्होंने मुझे आराम से जीने नहीं दिया अब उनकी बारी है, उनमें से कई तो बहुत मोटी-मोटी आसामी हैं, बाक़ी आप समझदार हैं ही. जय हो 1.’’
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रविवार, 13 जनवरी 2013

(लघुकथा) एक था भौंदू




दो बच्चे थे. दोनों पक्के अब्बे वाले दोस्त थे. पहला भौंदू था तो दूसरा कुछ हरामी सा था. जब भी मौक़ा मिलता, दूसरा आते-जाते भौंदू के एक कनटाप जड़ जाता. भौंदू तो भौंदू ठहरा, वो दूसरे को, पिटवाने की धमकी देकर कान मसलते-मसलते कूं-कां कर यहां-वहां निकल जाता. दूसरा भी खीस निपोरता और टहल जाता. ये सब हमेशा से ही, यूं ही चला आ रहा था.

एक दिन,  दूसरा कहीं से एक जहाज़ और एक बॉम्ब चुरा लाया. फि‍र वह
बॉम्ब, उसी जहाज़ में फ़िट कर दिया. और इस बार उसने वह जहाज़ ही भौंदू की कनपटी पर टिका दिया कि –‘देख अबके ये चला दूंगा. भौंदू ने दूसरे को झटका दि‍या -'ठहर, तेरी तो..' और इतना कह कर वह अपने घर के भीतर भागा. उसने गुस्से में अपने बस्ते से एक कॉपी निकाली. उसमें से एक पेज़ फाड़ा और ज़मीन पर बैठ कर उसका एक जहाज़ बनाया. फिर वो जहाज़ लेकर दूसरे के सामने आया और चिल्ला कर बोला- 'गर तूने अपनी माँ का दूध पिया है तो ले अब चला के दिखा, ना तुझे भी नानी याद दिला दी तो.'

अपने लड़ाकू जहाज़ के आगे, उसके हाथ में कागज़ का फड़फड़ाता जहाज देख कर वह भौचक रहा गया. दूसरे को कुछ समझ नहीं आया. वह सिर झटक कर बोला -'भग्ग. भौंदू कहीं का...' और पांव पटक कर वहां से निकल गया.
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