एक
भालूवाला था.
उसके
पास एक भालू था.
वह
सारा दिन भालू को यहाँ-वहाँ
नचा कर चार पैसे कमाता और रात
को,
दोनों
उसी पैसे का कुछ-कुछ
खा-पीकर
सो रहते.
एक
दिन कहीं से पशु रक्षा समिति
के कुछ कार्यकर्ता आए और उसका
भालू ले भागे.
वह
डुगडुगाता हुआ पीछे-पीछे
भागा और लगा चिरौरियां करने.
तो
एक ने उसे कुछ समझाया.
उसने
एक पेड़ के नीचे ठीहा लगाया
और अल्म्यूनियिम,
लोहे,
पीतल,
ताँबे
के कुछ खाली गंड्डे-ताबीज
ख़रीद लिए जिनमें उसी भालू
का एक-एक
बाल भर कर,
काले
धागे से बाँध,
मंत्र
फूँक के अब वह दीन-दुखियों
को दे देता है.
दीन-दुखियों
और भालू के बालों की स्प्लाई
पशु रक्षा समिति करती है,
शाम
को कुल जमा रकम में से कर्ता-प्रमुख
का हफ़्ता वह आस्था से पहुँचा
आता है.
अब
लोग उसे भालूवाला बाबा के नाम
से जानते हैं.
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मदी के इस दौर में आप भालुओं को क्यों बली का बकरा बना रहे हो भाई साहब ? नुश्खे भी ओसे सुझाते हो कि तुरंत समझ में अ जाए :)
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