शनिवार, 10 दिसंबर 2016

(लघुकथा) संतान



उसकी शादी हुए कुछ समय हो गया था. पर गोद अभी नहीं भरी थी. यूं तो इस बात पर किसी का कोर्इ ख़ास ध्यान नहीं था पर उसकी सास को इस बात का मलाल था और, गाहे-बगाहे इस बारे में कुछ टेढ़ा सा सुना ही देती थी. उनके घरों में, इन मामलों में डॉक्‍टरों की सलाह लेना ज़रा सही नहीं माना जाता था. यह तो तय ही था कि कमी होगी तो बहू में ही होगी जो वह मां नहीं बन पा रही थी. पति दुकान के काम-धंधे में बहुत व्यस्त रहता था, और सास बहू के मामलों से वैसे भी ख़ुद को दूर ही रखता था. उसका हमेशा यही कहना होता था कि भर्इ आपस में ही सुलटा लिया करो, मुझे बीच में न घसीटा करो. 

सास ने बहू को समझाया कि फलां शहर के एक बाबाजी  पूजा करके बेटा होने की शर्तिया दवा देते हैं. चलो उनसे मिल लेते हैं. सास बहू बाबा के यहां गर्इं.  बाबा ने सास की बात ध्यान से सुनी और बताया कि विशेष पूजा आयोजित करनी पड़ेगी जिसमें केवल बहू को भाग लेना है. बाबा पूजा आयोजित करने में व्यस्त हो गए, सास दूसरे भवन में कीर्तन सुनने चली गर्इ. आध-पौन घंटे बाद वह लौटी तो बहू बेहोश सी थी. बाबा ने कुछ पुड़िया दीं और कहा कि रोज़ाना रात एक देते रहना. 

रास्ते में बहू ने कहा कि उसके साथ ठीक नहीं हुआ. सास ने बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया. दो महीने होते-होते बहू को उल्टियों की शिकायत हो चली. सास, दादी बनने की ख़बर से फूली न समार्इ. बहू के बेटा तो नहीं हुआ पर एक बेटी का जन्म हुआ. दादी खुश तो हुर्इ पर उतनी भी नहीं कि कोर्इ उत्सव मनाया जाता. 
 
उसने बाबा के यहां फलों की एक टोकरी भिजवा दी.
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सोमवार, 4 जुलाई 2016

(लघुकथा) मेड.

वह भार्इ-बहनों में सबसे बड़ी थी. बचपन में ही एक आदिवासी गांव से शहर गर्इ थी.  अपने बचपन में, दूसरे परिवारों के बच्चे संभालने का काम किया. बड़ी हो गर्इ तो घरों में नौकरानी का काम किया. लोग उसे मेड कहते थे. हर महीने गांव मनिऑर्डर भेजती. गांव जाना तभी होता था जब कोर्इ शादी-विवाह हो. एक बार गांव गर्इ तो घर वालों ने उसका विवाह भी करवा दिया. पति को साथ ले आर्इ, एक कमरा किराए पर ले लिया, पति को एक सि‍क्‍योरि‍टी एजेंसी में चौकीदार रखवा दि‍या.

लोगों के घरों में काम करना बहुत थका देता था. तभी उसे किसी बीमार बुज़ुर्ग की तीमारदारी का काम मिला. उसने पाया कि इस काम में मेहनत कम थी, पैसा और इज़्ज़त ज्यादा. एक दिन वह बुज़ुर्ग गुज़र गया. कुछ दिन इंतज़ार के बाद उसे कहीं और वही काम मिल गया. धीरे-धीरे उसके लिए यह आम हो गया कि जिस किसी की तीमारदारी करती वह उम्र या बीमारी से, कुछ समय बाद गुज़र जाता. क्रियाकर्म निपटाने के बाद, किसी दूसरे के यहां, फिर नए सिरे से वही तीमारदारी.  किसी के मरने और नया काम मिलने के बीच अक्सर कुछ समय मिलता तो वह गांव हो आती. 

एक बार इसी तरह वह गांव गर्इ तो पाया कि उसकी मां बहुत बीमार थी. उसने मां की भी खूब सेवा की पर मां बच सकी. मां का क्रियाकर्म कर के वह शहर लौट आर्इ. वह पहली बार मृत्यु पर असहज थी. 

अब वह नर्सिंग केयर का काम नहीं करना चाहती थी. उसने किसी के घर में फिर बच्चे संभालने का काम ढूंढना शुरू कर दिया.
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