शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

(लघु कथा) जीवन



वह लंबे समय बाद अपने पुश्‍तैनी गांव आया था. गांव आना अब कम ही होता है उसका. मां रही नहीं पि‍ता अकेले रहते हैं गांव में. वही अब खेती-बाड़ी देखते हैं.

सर्दी की धूप अच्‍छी खि‍ली हुई थी. आज घर में चहल पहल थी. कई रि‍श्‍तेदार इक्‍ट्ठा हुए थे. बातों के साथ-साथ, रसोई से बर्तनों की आवाजें आ रही थीं. आंगन में, पि‍ता के साथ चारपाई पर बैठा वह अपनी बेटी को भाग-भाग कर काम करते देख रहा था. आज उसकी इसी बेटी की सगाई का दि‍न था. ‘देखते ही देखते तेइस साल कैसे उड़ गए पता ही न चला. इसका जन्‍म, अभी कल की सी ही बात लगती है.’-उसने पि‍ता से कहा.

‘और ज़िंदगी के जो बाकी कुछ साल बचे हैं वे भी ठीक यूं ही मुट्ठी का रेत हो रहे हैं.’-उसके पि‍ता ने हुक्‍के का एक और कश लेते हुए धीरे से कहा.

दोनों चुप थे पर उनके बीच बात अब भी हो रही थी. 

00000

2 टिप्‍पणियां: