सोमवार, 23 फ़रवरी 2015

(लघुकथा) पगड़ी



वह परि‍वार का इकलौता बच्‍चा था. शहर में पला बढ़ा. शहर में ही रहा. पर उसके पि‍ता गांव से आ कर शहर बसे थे. अब उसका वि‍वाह था, वह भी शहर में. यार दोस्‍त, सगे संबंधी लगभग सभी शहरी.  शादी में, सभी ने एक जैसी पगड़ीनुमा टोपि‍यां लगाईं. देखने में पगड़ी, पहनने में टोपी. कभी भी पहनो, कभी भी उतार दो. वि‍वाह के बाद वह धीरे-धीरे अपने जीवन में रंग गया.

एक दि‍न उसके पि‍ता जी चल बसे. परि‍वार फि‍र जुड़ा. संस्‍कार हुए. अब, एक मंदि‍र में रस्‍म-पगड़ी तय की गई. गांव से आए चाचा ने उसे बाजार से लाने वाली चीज़ों की लि‍स्‍ट बनवा दी. वह टैंट वाले के यहां पहुंचा और लि‍स्‍ट थमा दी 150 कुर्सी, 6 बड़ी टेबल, 2 छोटी टेबल, 50 गद्दे-चद्दर, 10 चद्दर, 10 बड़े पंखे, एक कॉफ़ी मशीन, 300 डोने, 500 पानी के गि‍लास, 7 वेटर, एक पगड़ी रस्‍म-पगड़ी वाली...



टैंट वाले के पास, रस्‍म वाली पगड़ी की मांग पहली बार आई थी. वह कुछ समझ नहीं पा रहा था.


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4 टिप्‍पणियां:

  1. जब सभी कुछ क्रत्रिम हो गया हो तो इज्जत मने पगड़ी का भी क्रत्रिम हो जाना स्वाभाविक ही तो है। ये कलयुग है मतलब सबकुछ कलपुर्जों के सहारे ही होना है।

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  2. मान-सम्मान और कल्याण की ज़िम्मेदारी भी आज सिर्फ दिखावा और रस्म अदायगी बनकर रह गई है …

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  3. क्यूँ....विवाह वाली नहीं रखी थी क्या?

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