उसे लिखने का बहुत शौक था. नौकरी तो थी पर उसमें, लेखक होने
के बावजूद कोई इज्ज़त नहीं थी. कोई उसकी इस बात को भाव नहीं देता था कि वह लेखक
था. वह बचपन से ही कविताएं लिखता आ रहा था. उसे कवि के बजाय लेखक कहलाना पसंद
था. उसने अपनी कविताओं की डायरियां बड़ी संभाल के रखी हुई थीं. अख़बारों में
सूचनाएं पढ़ कर धीरे-धीरे उसने गोष्ठियों में जाना शुरू कर दिया. वहां, वो तो
सबको सुनता पर उसे कविता कोई न सुनाने देता. तभी उसे अपने जैसे दूसरे लोगों की एक
बैठक के बारे में पता चला तो उसने वहां जाना शुरू कर दिया. वहां सभी एक दूसरे को
कविताएं सुनाते थे. हर बार उसे बुलावा भी आने लगा. अब उसकी एक ही चाह थी कि बस,
एक बार कोई उसकी किताब छाप दे. पता करना शुरू किया तो कुछ ले-दे कर किताबें छापने
वाले भी मिल गए.
उसने कुछ पैसे इकट्ठे करके किताब छपा ली. किताब बेचने के
लिए रिबन कटा, कुछ लोगों ने कुछ कॉपियां ख़रीद भी लीं. प्रकाशक ने कुछ कॉपियां
रख कर बाकी उसे ही लौटा दीं कि भई बेच लेना. अब वह हर गोष्ठी में अपनी किताब भी
ले जाता और उसकी कॉपियां वहीं नीचे बिछा देता. कभी-कभी कोई नया आदमी, एक-आध बार
उलट-पलट कर देख भी लेता. एक दिन, गोष्ठी कराने वाले कवि ने उसे कहा कि भई इन्हें
बाहर रखा करें तो बेहतर. अब वह बाहर ही किताबें बिछा कर बैठने लगा. फिर एक दिन,
उसे गोष्ठी के लिए बुलावा आना बंद हो गया.
किसी से बातचीच कर, बैठक वाले दिन वहां पहुंचा तो उसने
देखा कि गोष्ठी कराने वाले कवि ने बाहर, उसके बैठने वाली जगह पर तीन लेखक अपनी-अपनी
किताबों के साथ बिठा रखे थे.
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