उसकी उमर बहुत हो गई थी. पर फिर भी घर के नज़दीक ही एक
डॉक्टर के छोटे से प्राइवेट क्लीनिक में सफाई-पोचे का काम करती थी. घर पर कुछ
ख़ास काम नहीं होता था सो, सुबह-सवेरे पहुंच जाती, धीरे-धीरे आराम से काम निपटाती,
पूरा दिन वहीं रहती और फिर शाम को ही घर जाती. एक दिन सुबह-सुबह क्लीनिक
खुलने से पहले ही एक परिवार बदहवास सा क्लीनिक पहुंचा. मां-बाप की गोद में कुछ
महीने का बेटा था. साथ में उनकी बड़ी बेटी भी थी.
उन्होंने बताया कि डॉक्टर साहब से बात हो गई है. वे आते ही होंगे. उनके बेटे को तेज़ बुखार था, वह आंखें नहीं खोल रहा था. उसने काम छोड़ कर उन्हें बिठाया और भीतर से गीली पट्टी लाते हुए तसल्ली दी कि कोई बात नहीं, चिंता न करो, माथे पर गीली पट्टी रखने से बुखार उतर जाएगा. उन्हें इस बात की भी चिंता थी कि बेटी जो बारहवीं में थी, आज उसका स्कूल मिस नहीं होना चाहिए. तभी डॉक्टर साहब भी आ गए. बच्चे को चैक किया और कहा कि डरने की कोई बात नहीं है, आइंदा बच्चे का बुखार इतना न बढ़ने दें. जैसे ही बुखार बढ़ना शुरू हो, गीली पट्टी से माथा, कांख और पेट पोछें. और कुछ दवाइयां भी लिख कर दीं.
परिवार चला गया तो वह वहीं डॉक्टर के केबिन में साफ-सफाई
करते हुए खुद से बोली –‘बेटी और बेटे की उमर में इतना फरक ! रामजाने कितनी
बेटियां मारी होंगी.’ डॉक्टर ने यूं कंप्यूटर ऑन करने का उपक्रम किया कि
जैसे उसने कुछ सुना ही न हो.
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