सोमवार, 2 नवंबर 2015

(लघुकथा) एफ़.आई.आर.



लाला बहुत परेशान था. उसने जगह-जगह फ़ोन करने के बाद फ़ैसला कि‍या कि‍ थाने जाना ही ठीक रहेगा. थानेदार को मि‍ला और अपनी आपबीती सुनाई कि‍ -साहब, मेरा सेल्‍समैन मेरा तेइस लाख रूपया लेकर भाग गया. दो नंबर का पैसा नहीं था साहब, तीन दि‍न की बि‍क्री का पैसा था. बैंक के सभी काम वही करता था. कल भी, और दि‍नों ही की तरह, रूपया लेकर बैंक में जमा करवाने गया था. पर न वह बैंक पहुंचा और न ही वापस आया. उसका मोबाइल बंद है. घर में ताला लगा है. उसे जानने वालों को उसके बारे में कुछ पता नहीं. उसके गांव से भी उसके बारे में कोई ख़बर नहीं. साहब, मुझे लगता है कि‍ वह मेरा पैसा लेकर भाग गया है. प्‍लीज़ उसे पकड़ि‍ए.

थानेदार और उसके डि‍प्‍टी ने उसकी बात ध्‍यान से सुनी और लाला को दि‍लासा देकर भेज दि‍या -‍ ठीक है तहकीकात करते हैं. आप नि‍श्‍चिंत होकर जाओ. एफ़.आई.आर. की कॉपी बाद में ले जाना.

लाला के जाने के बाद थानेदार ने सब-इन्‍सपेक्‍टर को कहा कि‍ -कल एक एफ़.आई.आर. लि‍ख लेना, लाला के नौकर की लाश फलां जगह पड़ी मि‍ली. अज्ञात लोगों के ख़ि‍लाफ़ लूट और हत्‍या का मामला दर्ज़ कर लि‍या गया है. तफ़्तीश जारी है. और बाक़ी देख लेना.- फि‍र थानेदार साहब बाहर नि‍कल गए. 
00000

1 टिप्पणी: