एक बहुत बड़ा
प्रकाशक था. हर साल बहुत सी किताबें छापता था. जगह-जगह होने वाले पुस्तक मेलों
में हर साल स्टॉल लगाता, जहां कुछ किताबों का विमोचन करवाता तो कुछ का
लोकार्पण. वह हर मेले में केवल नई छपी किताबें बेचने के लिए ही जाना जाता था.
धंधा अच्छा चल रहा था.
इस साल भी
उसने आने वाले पुस्तक मेले में स्टॉल बुक करवा दिया था, पर जब मेला शुरू हुआ तो
इस बार उसके स्टॉल पर किताबें नहीं बल्कि किताबों सी दिखने वाली प्लेन कॉपियां
बिक रही थीं. उसके यहां नियमित आने वाले लोगों को लगा कि शायद उसने पुस्तक-प्रकाशन
के बजाय स्टेश्नरी का काम शुरू कर दिया है. इस बार वह ख़ुद भी स्टॉल पर नहीं
मिला, उसकी जगह कोई कर्मचारी बैठा हुआ था.
पूछने पर उस कर्मचारी
ने बताया –‘’साब, लालाजी लेखकों को पैसा-धेला तो देते नहीं थे सो, इस बार सबने मिलके
इनको कुछ भी लिख कर देने से मना कर दिया. लेकिन प्रिंटिंग वाले ने तो एडवांस
लेकर अपना काम फिट रखा हुआ था, उसने तो बिना कुछ छापे ही ये कॉपी जैसी दिखने
वाली किताबें हमें थमा दीं. अब, क्योंकि इस स्टॉल की बुकिंग का रिफ़ंड मिलना
नहीं था सो, लालाजी ने सोचा कि किराया भी बट्टेखाते में जाए इससे बढ़िया है कि
ये कॉपियां बेच कर ही चार पैसे कमा लिए जाएं. आपको कितनी कॉपी दूं साब.’’
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बढ़िया.... :-)
जवाब देंहटाएं...जय हो :-)
जवाब देंहटाएंkam se kam das likhne ke kam to aayengi .ve chhapi hui to bas padhte ya kahin rakh dete ..सराहनीय अभिव्यक्ति ये क्या कर रहे हैं दामिनी के पिता जी ? आप भी जाने अफ़रोज़ ,कसाब-कॉंग्रेस के गले की फांस
जवाब देंहटाएंभाई साहब मिलते कहाँ है आपको सभी ऐसे लोग ? :)
जवाब देंहटाएंbadhiya
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