बहुत साल पहले, बहुत से औरों की ही तरह वह भी पेट का सवाल लेकर
गांव से शहर चला आया था. शुरू-शुरू में
कुछ छोटा-मोटा काम हाथ लगा फिर धीरे-धीरे
एक नौकरी जमा ली थी उसने. परिवार भी हो चला था. यहां-वहां किराए के मकानों में रहता रहा. मकान मालिक आए दिन उसे मकान बदलने को कहते रहते, उनमें से कुछ डरे हुए मकान मालिक होते थे
तो कुछ किराया बढ़ाने का लालच पाले रहते थे. बहुत तंग आ गया था
वह आए दिन यूं सामान लिए घूमते-घूमते. किस्मत
ने पासा पलटा और एक दिन शहर की डेवलेपमेंट अथॉरिटी का फ़्लैट उसे मिल गया. प्रापर्टी डीलरों से बचते-बचाते उसने
फ़्लैट का कब्जा लिया और उसमें शिफ़्ट कर गया. उसकी ज़िंदगी का
ये सबसे बड़ा काम था.
कुछ साल बाद जब वह सैटल हो गया तो उसे लगा कि मां को एक बार अपने
नए फ़्लैट पर ज़रूर बुलाना चाहिए. मां आई तो सही पर गांव की
खुली हवा में रहने वाली उसकी मां को यहां दम घुटता सा लगता. एक
दिन सुबह दूध के लिए जाते समय उसने मां को भी साथ ले लिया कि चलो मां की भी कुछ टहल-कदमी हो जाएगी.
'बेटा, यहां सभी मकान देखने में एक से ही लगते हैं.'-
मां ने फ़्लैटों की कतारें देखते हुए कहा.
'हां मां.'
'और देखो तो, इनमें रहने वाले लोगों की शक्लें भी एक दूसरे
से एकदम मिलती हैं. है न. '- मां ने बेटे की ओर देखते हुए कहा. वह दूध का डोलू हिलाते हुए सिर झुकाकर चलता रहा.
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अच्छी कहानी है।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद विजय जी.
हटाएंअच्छी कहानी है पर अंतिम पैराग्राफ का वास्तविक अभिप्राय वाही है जो आपने लिखा है या कुछ और, स्पष्ट नहीं हो सका.
जवाब देंहटाएं....सब शहरी एक जैसे बन जाते हैं,रिमोटचलित !
जवाब देंहटाएंसुंदर कथा।
जवाब देंहटाएंकभी-कभी तो लगता है इंसान नहीं रोबोट हैं।
जवाब देंहटाएंअच्छी कहानी!