शनिवार, 18 अगस्त 2012

(लघु कथा) दो बेचारे



वह ड्राइवर था, बहुत अच्‍छा ड्राइवर था. दूर दूर तक लोगों ने उसकी ड्राइविंग के चर्चे सुन रखे थे. एक दि‍न उसने फ़ैसला कि‍या कि‍ चलो अपनी ही गाड़ी ख़रीद ली जाए.

वह शोरूम जाकर बोला –‘लाला जी एक अच्‍छी सी कार दि‍खाओ.’
उसे देख कर लाला की तो बाछें खि‍ल गईं –‘चलो छोड़ो, कार खरीद कर क्‍या करोगे. ये लो मेरे यहां ड्राइवरी कर लो.’ अपनी कार की चाभि‍यां उसकी तरफ फेंकते हुए शोरूम मालि‍क बोला. उसने मन मसोस कर मना कि‍या और बाहर आ गया.

वापसी में उसे वह फ़ोटोग्राफ़र दोस्‍त मि‍ला जो सुबह कि‍सी प्रकाशक के पास अपनी कि‍ताब छपवाने की बात करने गया था. उसका उतरा हुआ मुँह देख कर उसने पूछा –‘क्‍यों, तुम्‍हारे साथ भी यही हुआ क्‍या ?’

दोनों ही मुस्‍कुरा दि‍ए और फि‍र बि‍ना कोई बात कि‍ए साथ-साथ चलने लगे.
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4 टिप्‍पणियां:

  1. चलिए दोनों ही बर्बाद होने से बच गए, उन्हें लाला और प्रकाशक का शुक्रगुजार होना चाहिए :)

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  2. कुमार जी नमस्कार...
    आपके ब्लॉग 'कथा कहानी' से लेख भास्कर भूमि में प्रकाशित किए जा रहे है। आज 25 अगस्त को 'दो बेचारे' शीर्षक के लेख को प्रकाशित किया गया है। इसे पढऩे के लिए bhaskarbhumi.com में जाकर ई पेपर में पेज नं. 8 ब्लॉगरी में देख सकते है।
    धन्यवाद
    फीचर प्रभारी
    नीति श्रीवास्तव

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