सोमवार, 16 दिसंबर 2013

(लघुकथा) बेशर्म



     वह सि‍गरेट का आख़ि‍री कश लगा कर उसे फेंकने ही वाला था कि उसकी नज़र सामने पड़ी. उसने देखा कि एक अधेड़ आदमी और औरत एक दूसरे का हाथ पकड़े चले आ रहे हैं. उसे लगा कि वाह क्‍या नंग ज़माना आ गया है. अगर इस उमर के लोग ही इस तरह की सरेआम बेहयायी पर उतर आएंगे तो जवान बच्‍चे क्‍यों नहीं इसी तरह की हरकतें करेंगे.

     वह वहीं इस तरह से रूक गया कि मानो सड़क पार करने की इंतज़ार में है. उसे लगा कि मैं भी तो देखूं आख़ि‍र ये लोग हैं कौन. हालांकि वह देख सड़क के उस पार रहा था पर उसकी नज़र उन दोनों पर ही थी, जो उसके पास आते जा रहे थे. जब वे उसके सामने से गुजरे तो उसे एहसास हुआ कि औरत को शायद बहुत कम दि‍खाई देता था और आदमी देख नहीं पाता था. उसने सि‍गरेट का आख़ि‍री सर्द कश लि‍या, टुकडा वहीं फेंक कर धीरे से पांव से मसला और चुपचाप सड़क पर गया. 
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9 टिप्‍पणियां:

  1. उफ़्फ़ !! सोच कब बदलेगी, हम आम इंसान की ...
    बहुत सच दिखाया आपने ॥

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  2. सार्थक लघुकथा ....बहुत सुंदर ।

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  3. होता है.. .ऐसा भी होता है. ऐसे ही वाकये एक एक करके हमारे ज़ेहन में बसते रहते हैं.. और एक दिन व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं.

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  4. इतना भी आसान नहीं है बरसो पुराणी धूल पोंछना

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  5. ...आख़िरी कश लगा कर फेकने ही वाला था लेकिन... आख़िरी कश लगाने से पहले 'सारे घटनाक्रम' पर किसी ठीक ठाक नतीजे तक पहुँचने के वास्ते वो, ठहर कर देखता रहा और फिर उसने अपनी अनफेंकी हुई सिगरेट के आखिरी कश को सर्द करके 'पाँव' से मसल डाला , क्योंकि (शायद) उसने जूते या चप्पल नहीं पहने हुए थे ! कथा का निष्कर्ष ये कि नंगे पाँव आदमी की शुरुवाती सोच भले ही नंगी होती हो पर निकालता वो सच्चे नतीजे ही है :)

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