वह
एक बहुत सुंदर युवक था. सुडौल सुघड़. किन्तु भगवान का खेल देखिए, अक़्ल से पैदल
था वह. बातचीत में नितांत सभ्य और जी हज़ूरी में एकदम पुख़्ता. क्या मज़ाल कि
वह किसी को नाराज़ कर दे. मिल-बैठने की कैसी भी बात हो, वह सबसे आगे मिलता.
कुछ-कुछ ख़ास तरह के पीठ-खुजाउ माहौल में तो वह हमेशा हाज़िर रहता. कुछ थे जो उसे
पसंद नहीं करते थे पर न कुछ बोल सकते थे न कुछ कर सकते थे. सुंदरता से इठलाते, उसे
शादी-ब्याह की याद तक न रही. जब समय निकल गया तो अपने आप को समझाने लगा कि शादी
की ज़रूरत किसे है, शादी बंधन है, विवाह से आज़ादी छिन जाती है, विवाह के बाद
की गुलामी कौन सहे ...
उम्र
बढ़ने लगी, आसपास के लोग धीरे धीरे सिमटने लगे.
एक
दिन, मुंह उठा कर वह कहीं किसी कार्यक्रम का दीवार पर चिपका पोस्टर देख रहा था
कि उसे, उसी के जैसी, वह अधेड़ औरत मिली जो अपनी जवानी के दिनों में इसे दुत्कारने
के काबिल भी नही समझती थी. उस औरत ने पूछा –‘तो तुम भी आजकल नीचे उतर आए !’. वह खिसिया कर मुस्कुरा दिया. और दोनों, आगे बात किए बिना फिर
पोस्टर देखने में व्यस्त हो गए.