गांव में वे दोनों आसपास
रहते थे. दोनों की कुछ-कुछ पुश्तैनी ज़मीन थी, वह भी साथ-साथ ही थी. कभी मेड़़, कभी
पेड़, कभी घास, कभी बच्चे, कभी औरतें, कभी कुछ कभी कुछ ...मतलब ये कि आए दिन किसी
न किसी बात को लेकर दोनों में लड़ाई-झगड़ा होता ही रहता था. कभी गाली-गलौज तो कभी-कभी
बात हाथा-पाई तक पहुंच जाती थी. आए दिन पंच-पंचायत भी होती. एक दिन, किसी पेड़
की छंटाई को लेकर बात इतनी बढ़ी कि एक ने दूसरे की हत्या ही कर दी.
पुलिस आई, तहकीकात हुई,
केस बना, हत्यारे को जेल भेज दिया. कोर्ट-कचेहरी होने लगी. दिन, महीने, साल
बदलने लगे. गवाह कभी जाते, कभी न जाते. जज आते, चले जाते. गवाह वाकया भूलने लगे तो
वकील-लोग केस की तारीख़ें. दोनों के परिवारों के बच्चे बड़े होते रहे, इस बीच
उनकी शादियां भी होने लगीं. बेटियां जाने लगीं, नई बहुएं आने लगीं. बीच-बीच में,
उनके पोते-पोतियों को केस के बारे में भी बताया जाता. दोनों के परिवारों में
दुश्मनी तो बनी रही पर कोर्ट-कचेहरी करते-करते थक चले थे वे.
एक दिन, ऐसा भी आया कि
पर्याप्त सबूतों के अभाव में कचेहरी ने उसे बरी कर दिया. उसके परिवार में कोई
ख़ास खुशी नहीं थी. हां यह बात अलग है कि दोनों ही परिवारों ने चैन की सांस ली
कि चलो काले कोट वालों से पीछा छूटा.
वह अब बूढ़ा हो चुका था.
उसकी पीठ झुक चुकी थी. उसकी हुक्के की आदत अब बीड़ी में बदल गई थी.
एक दिन, वह उसी झगड़े
वाले पेड़ के नीचे बैठ, बीड़ी पीते हुए याद करने की कोशिश कर रहा था कि आखिर उस
दिन हुआ क्या था.
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भारतीय न्यायव्यवस्था की देरी पर गहरा कटाक्ष
जवाब देंहटाएंअच्छी लगी कहानी
प्रणाम
आखिरकार जीत प्रेम की होती है ! यही संदेश देती लघु कहानी
जवाब देंहटाएंलेकिन फिर पछताये होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत !!
nyay vyavastha par achhi chot. badhiya kajal ji
जवाब देंहटाएंमुझे तो ये कहानी 'न्याय व्यवस्था' से अधिक पारिवारिक मसलों पर व्यंग्य करती प्रतीत होती है। तू-तू मैं-मैं, तेरा-मेरा जैसे मसलों में उलझकर पूरे जीवन का सुकून गँवा बैठा बेचारा। जो मसले परस्पर बैठकर सुलझ ससते थे उनमें दो परिवार के तमाम सदस्यों का जीवन भर का सुख-ऐश्वर्य होम हो गया।
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