मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

(कवि‍ता) दंभ



नया दि‍न,
नई सुबह,
सुबह का अख़बार,
पर
अख़बार में भी
ख़बर कुछ भी नहीं.
उफ़्फ
फि‍र भी कि‍तना गुमान कि‍
ज़िंदा हूं मैं.

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गुरुवार, 22 नवंबर 2012

(लघुकथा) गि‍फ़्ट



लाला जी शहर के बहुत बड़े आदमी थे. बहुत बड़ा और तरह-तरह का कारोबार था उनका, जिसे उन्‍होंने बड़ी मेहनत से खड़ा किया था. तमाम बड़े-बड़े लोगों में उठ-बैठ थी उनकी मगर क्‍या मज़ाल कि किसी ने उन्‍हें कभी ऊंची आवाज़ में बात करते सुना हो. सभी बहुत आदर करते थे उनका. सभी हल्क़ों में बड़ा रसूक रखते थे.

ईश्‍वर की मर्ज़ी, एक दिन लाला जी बीमार पड़ गए. हर तरह का इलाज किया गया पर उनकी हालत में सुधार नहीं हुआ. उनका एक बेटा था. बेटा भी पिता पर ही गया था, उतना ही सज्‍जन. लाला जी को लगा कि उनका अंतिम समय आ गया है. उन्‍होंने बेटे को बुलाया. ‘‘देखो बेटा, जीवन में मेहनत ज़रूरी है पर याद रखना हर दिवाली इन लोगों को मिठाई ज़रूर मिले.’’ - कहते हुए उन्‍होंने बेटे को एक लिस्‍ट दी जिसमें लिखा था संसद सदस्‍य, विधायक, कलेक्‍टर, एस.पी., (सभी ड्राइवर और चपरासी सहित), दारोगा, इन्‍कम टैक्‍स, एक्‍साइज़, सेल्‍स टैक्‍स के इलाक़ा-अफ़सर, बिजली-पानी-फ़ोन के लाइनमैन, चौकीदार, लिफ्टमैन, ड्राइवर, खानसामा, नाई, धोबी, मोची, झाड़ूवाला, फ़राश.....

उसके बाद लाला जी ने ऑंखें बंद कर लीं.
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मंगलवार, 30 अक्तूबर 2012

(लघुकथा) पि‍ल्ला




उस पार्क के एक कोने में वह पता नहीं, एक दि‍न, कैसे और कहां से आ गया था. तब वो इतना छोटा था कि‍ मुश्‍कि‍ल से उसकी आंखें ही खुलती थीं. सुबह की सैर को आए लोगों के पांवों में उलझते-उलझते बचता था वो. लोग उसे कुछ कुछ डाल जाते. बाकी दि‍न भर, खाने को उसे क्‍या मि‍लता या कुछ मि‍लता भी था, पता नहीं. वह अपने उसी कोने के आस-पास ही रहता. आने-जाने वालों के संग दुम हि‍लाता और डरता-दुबकता कुछ डग, उनके आगे-पीछे भी चलता. अब वह कुनमुनाने से आगे, छोटा-मोटा भौंक भी लेता था. वहां भटकने वाले दूसरे कुत्‍ते उस पर कोई ध्‍यान नहीं देते थे, न ही वह उनके पीछे डोलता था. धीरे-धीरे बड़ा हो रहा था.

पास ही, उसी पार्क के बाहर एक वि‍क्षि‍प्‍त सा भि‍खारी लेटा रहता था. एक दि‍न, दो पुलि‍स वाले उसे पता नहीं कहां, ज़बरदस्‍ती ले गए. जाते हुए उसने, पि‍ल्‍ले को एक बार हसरत भरी नि‍गाहों से देखा और फि‍र अनमना सा धीरे-धीरे उनके साथ चला गया. पि‍ल्‍ले को यह बात भी समझ नहीं आई.
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शनिवार, 20 अक्तूबर 2012

(लघुकथा) इट्स कूल



बाबा पहली बार अपने बेटे के पास, गॉंव से शहर आए थे. बेटे ने यहां अपना काम जमा लि‍या था जबकि‍ वे वहां मास्‍टरी से रि‍टायर हुए रहे.

आज घर में धुर सुबह से ही बहुत चहल-पहल थी. कोई कि‍सी को जगा रहा था. कोई गीज़र गर्म करने को कह रहा था तो कोई नए कपड़े की लगाए था. कोई पूजा सामग्री को पूछ रहा था. बहू ने भजन का चैनल लगा दि‍या था. आज बड़ा शुभ दि‍न था, मुंह-अंधेरे मंदि‍र जा कर ही पूजा-अर्चना करना तय हुआ था. पहले सोचा कि‍ सुबह ख़ुद ही कार लेकर मंदि‍र चले चलेंगे फि‍र लगा कि‍ नहीं, मंदि‍र दूर है इसलि‍ए अच्‍छा है कि‍ ड्राइवर कर लि‍या जाए, मन प्रसन्‍न रहेगा.

बाबा को भी पूछा कि‍ चलोगे ?  जैसा कि‍ होता है, बाबा ने मना कर दि‍या कि‍ नहीं भई आप लोग ही हो आओ. सब, बाबा को लाइटें और गेट ठीक से बंद कर लेने की हि‍दायत दे कर नि‍कल गए. बाबा कमरे में वापि‍स आ गए.

‘मध्‍यवर्ग की जेब में पास चार पैसे आ जाएं तो भगवान का जीना दूभर कर देता है ये‘- टी.वी. बंद करते हुए बाबा अपने से बुदबुदाए और फि‍र सोने चल दि‍ए.

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