बुधवार, 24 अप्रैल 2013

(लघुकथा) एक था गधा



एक जंगल था, स्‍याह जंगल. जंगल में एक हाथ को दूसरा हाथ दि‍खाई नहीं देता था. उस जंगल में एक सि‍यार था और एक था गधा. गधा सि‍यार से कहीं अधि‍क बड़ा और बलशाली था, पर था तो गधा ही इसलि‍ए सि‍यार ने उसे अपने प्रश्रय में रखा हुआ था. सि‍यार मॉंस खाता और गधा खाता घास. एक दि‍न, सि‍यार को घास में भी स्‍वाद आ गया और वह घास भी खाने लगा. यहां तक कि‍ वह गधे के हि‍स्से का भी सारा जंगल खा गया. गधा रात को लेटा तो उसने फ़ैसला कि‍या कि‍ वह सुबह सि‍यार को ढूंढ कर दुलत्‍ती मार वि‍दा कर देगा उस जंगल से. उस रात गधा भूखा सोया.

सुबह सि‍यार उसे ढूंढता आया और बोला – ‘मुझे पता चला कि‍ कल रात तू भूखा सोया ? ओह, बड़ा बुरा हुआ. ख़ैर कोई बात नहीं, तू मेरे साथ आ, मैं तुझे दि‍खाउंगा कि खाने के लि‍ए‍ घास कैसे उगता है.’

गधा तो गधा ठहरा, मान गया और फि‍र पेट पर पत्‍थर रख सि‍यार के प्रश्रय में हो लि‍या, एक बार फि‍र घास उगने की उम्‍मीद में. उस जंगल में भी घास पॉंच साल में एक ही बार उगता था.
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रविवार, 21 अप्रैल 2013

(लघुकथा) बिंदु



एक स्‍वामी जी थे. एक दि‍न वे एक बस्‍ती में गए और लोगों को संबोधि‍त करते हुए बोले, मैं तुम्‍हें एक काम दे कर जा रहा हूं, मुझे इसका मतलब बताना. उसके बाद स्‍वामी जी ने दीवार पर एक नि‍शान बनाया और चले गए.

सब अपने-अपने हि‍साब से उसका मतलब बताने लगे. कि‍सी ने कहा कि यह नक्षत्र है तो कि‍सी ने कहा कि तारा है, कि‍सी ने उसे सूरज कहा तो कि‍सी ने ब्रह्मांड. कि‍सी ने सृष्‍टि का आदि तो कि‍सी ने सृष्‍टि का अंत. और सब बहस करते रहे.

कुछ समय बाद स्‍वामी जी लौटे और सब की उपस्‍थि‍ति में एक बच्‍चे को बुला कर पूछा कि बेटा ये क्‍या है. बच्‍चे ने कहा –‘यह एक बिंदु है बाबा.’

स्‍वामी जी ने कहा –‘और तुम लोगों ने इ‍तनी सीधी सी बात के क्‍या क्‍या मतलब नि‍काल डाले. जीवन भी इतना ही सरल है पर तुम हो कि उसे क्लि‍ष्‍ट बनाए बैठे हो.’

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शनिवार, 20 अप्रैल 2013

(लघुकथा) कुत्‍ता




घर में बच्‍चे अक्‍सर ज़ि‍द करते रहते थे कि उन्‍हें एक कुत्‍ता चाहि‍ए. उसकी अपनी भी बहुत इच्‍छा थी कि,‍ वह भी कुत्‍ता पाले, एकदम शेर जैसा कुत्‍ता. जो बहुत बड़ा और लंबा-चौड़ा शानदार हो. पर कि‍सी न कि‍सी बहाने बात टलती ही चली आ रही थी और कभी कभी तो बि‍ना बहाने भी कुत्‍ता लेने का फ़ैसला नहीं हो पा रहा था. लंबे समय तक बस सब-कुछ यूं ही चलता रहा.
 
लेकि‍न आख़ि‍र वह दि‍न भी आया जब उसने कुता लाने का फ़ैसला कर ही लि‍या. और शाम को जब वह कुत्‍ता लेकर घर पहुंचा तो घर के सभी लोग कुत्‍ते को एक टक देखते रह गए, कोई कुछ नहीं बोला. क्‍योंकि कुत्‍ता शेर जैसा तो क्‍या होता, वह तो कुत्‍ते जैसा भी नहीं था. बल्‍कि वह इतनी छोटी प्रजाति का था कि भरी-पूरी उम्र होने के बावजूद वो बि‍ल्ली के बच्‍चे से बड़ा नहीं लग रहा था.

उसके चेहरे पर बड़ा-बड़ा लि‍खा महानगरीय जीवन का सच साफ देखा जा सकता था.


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सोमवार, 8 अप्रैल 2013

(लघु कथा) कवयि‍त्री की जीवनी छपने को है



दूसरों की देखा-देखी, ललाइन को भी याद हो आया कि कभी अपने पैंताली‍स-पचास कि‍लो बजन वाले दि‍नों उसने भी तो चॉंदनी चॉंद से होती है, सि‍तारों से नहीं...’ जैसी उम्‍दा शायरी लि‍खी थी. सो, उसने फि‍र से कवि‍ताएं लि‍खना शुरू कर दि‍या. और भगवान की माया, देखते ही देखते उसे पता चला कि वह तो बहुत बड़ी कवयि‍त्री हो भी गई.





एक दि‍न, लाला को कहा कि अब कवि‍ताओं की कि‍ताब छपा दो, मेरा भी बहुत दि‍ल करता है वि‍मोचन कराने को. लाला ने राय दी कि देखो भागवान, बस यूं ही गंवा देने के लि‍ए पच्‍चीस-तीस हज़ार बहुत बड़ी रकम होती है. जो वि‍मोचन पर जुटाने से दो-चार आएंगे वही तो तुम्‍हारे रीडर भी हैं, मेरी मानो तो उन्‍हें यहीं घर पर बुला कर एक गोष्‍ठी-फोष्‍ठी कर लो. सब चाय-नमकीन में ही नि‍पट जाएगा और तुम्‍हारी घरेलू ठाठ के नक्शे भी दि‍खा देंगे सो अलग. बात पते की थी. ललाइन के भी जम गई.

कुछ दि‍न बाद, एक कवि-मि‍लन की फ़ोटुएं वाह-वाही के साथ दुनि‍या भर में, यहां-वहां, खूब शेयर और फ़ारवर्ड होती मि‍लीं.
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