मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

(लघुकथा) भोलू की कहानी


वह एक मध्‍यवर्गीय परिवार से था. कुछ बड़ा हुआ तो उसे घर वालों ने एक स्‍कूल में भर्ती करवा दिया. घर पर उसे भोलू कहते थे सो स्‍कूल में उसका नाम भोलू चंद लिखवाया गया. तब अंग्रेज़ी स्‍कूलों का न तो रिवाज़ था न ही मध्‍यवर्गीयों की हैसियत थी भोलुओं को अंग्रेज़ी स्‍कूलों में भेजने की. उसने पढ़ाई-लिखाई हिन्‍दी से पूरी की. नौकरी मिली तो उसने पाया कि वहां दो दुनिया थीं, एक हिन्‍दी की दूसरी अंग्रेज़ी की. उसने ये भी देखा कि अंग्रेज़ी वालों की बात भी कुछ और ही थी. उसने फिर बड़ी मेहनत की और धीरे-धीरे वह अंग्रेज़ी वालों की जमात में शामिल हो गया.

एक दिन उसने अपने बेटे से उसकी बारहवीं की परीक्षा के बारे में बात की क्‍योंकि वह भी उसी की तरह गणित में कुछ कमज़ोर था –‘बेटा तुमने लघुत्‍तम समापवर्तक के सवाल तो पक्‍के कर लिए हैं न?
डैड, व्‍हाट डू यू मीन बाई लगुत्‍तम बत्‍तक ?’ – बेटे ने पूछा.

उसे लगा कि अचानक किसी ने उसका नाम भोलू चंद से बदल कर भौंदू चंद कर दिया है.
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रविवार, 26 फ़रवरी 2012

(लघु कथा) विमोचन


 
उसे जाने-माने साहित्‍यकारों की फ़ेहरिस्‍त में शामिल होने की को‍शिश करते करते ज़माना बीत गया. जाने-माने तो क्‍या, उसके ख़ुद के अलावा कोई दूसरा उसे साहित्‍यकार तक कहने को तैयार न होता था. पर किस्‍मत का खेल देखो, एक दिन उसे किसी की पुस्‍तक के विमोचन का न्‍योता आ गया. समारोह में जाने के लिए वह ख़ुशी-ख़ुशी बालों में खिजाब लगाने की तैयारी करने लगा.

पत्‍नी की आवाज आई –‘क्‍यों बाल काले कर भद पिटवाना चाहते हो, देखा नहीं कि किताबें रिलीज़ करने वालों के बाल सफ़ेद होना कितना ज़रूरी होता है.’

उसे ठीक वैसा ही लगा जैसा पहली बार किसी जवान बच्‍चे के उसे पहली बार अंकल कह कर पुकारने पर लगा था. तब उसे ध्‍यान आया कि –‘अरे ! अपनी तो पूरी उम्र ही बीत गई.’
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शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

(लघु कथा) कहानी एक और राजे की



एक बहुत बड़े देश में एक राजा था. राजा निरंकुश था. अपने राज में वह अपनी मनमानी करता था. किसी से नहीं डरता था. उसके सेनापति को उसकी गतिविधियों की जानकारी न होने का भ्रम सदा ही बनाए रखा जाता था, कम से कम देश को तो यही लगता था. देश की प्रजा अपने-अपने काम धंधों में लगी रहते थी और निर्विकार भाव से देश के लिए धनोपार्जन करती रहती थी.

उसी देश में एक स्वामी जी भी रहते थे. स्वामी जी राजा की तुलना में प्रकांड ज्ञानी थे. स्वामी जी को राजा का यूं राज करना फूटी आंख न सुहाता था क्योंकि दोनों ही देश के एक ही क्षेत्र से थे पर एक राजा दूसरा रंक. एक दिन स्वामी जी ने राजा को गिराने की भीष्मप्रतिज्ञा के साथ चाणक्य की ही तरह जटा खोली और राजा की जड़ों में मट्ठा डालने में जुट गए. और भाग्य का खेल देखिए, वही हुआ, स्वामी जी ने भी ठीक चाणक्य की ही तरह अपने प्रयासों में सफलता पाई और राजा को नंद वंश की ही तरह जड़-मूले से उखाड़ फेंका. इसके बाद का लिखित इतिहास नहीं मिलता है कि मौर्यवंश की ही भांति किसी सम्राट अशोक की प्रतिस्थापना उस देश में हो पाई या नहीं. देश की प्रजा पहले ही तरह अपने-अपने काम धंधों में लगी रह कर निर्विकार भाव से देश के लिए धनोपार्जन करती रही.
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