बाज़ार
के बीचो-बीच उसकी छोले-भटूरे की छोटी-सी दुकान थी. दुकान खूब चलती थी, लोग उसकी
दुकान ठीक से खुलने से भी पहले ही आकर इंतज़ार करते. उसने यह दुकान बहुत पहले तब
खोली थी जब उसकी शादी भी नहीं हुई थी. उसने अपनी दुकान में अपने आराध्य देव की स्थापना
भी की थी. इसी दुकान से उसने घर-बार, ज़मीन-जायदाद भी बनाए, बच्चों को पढ़ा-लिखा
कर अच्छे घरों में उनकी शादियां भी कीं. भगवान में उसकी अटूट श्रद्धा थी. दुकान
में घुसते ही सबसे पहले वह उस मूर्ति की पूजा करता फिर कोई दूसरा काम शुरू करता. भगवान की वह मूर्ति एक ऊंची सेल्फ़
में थी. वह एक कुर्सी पर चढ़ कर मूर्ति की आरती करता, धूप
जलाता, आंख बंद कर प्रार्थना करता, भोग लगाता, इस
बीच उसके नौकर चाकर बाकी काम निपटाते रहते. कढ़ाही का पहला भटूरा अपने आराध्य को
चढ़ाता, तक कहीं दुकान बाक़ायदा शुरू होती और वह गल्ले पर बैठता.
आज वह कुछ लेट हो गया था. घर से दुकान तक, बड़ी तेज़ी से स्कूटर चला कर
पहुंचा था. एक चौराहे पर सिग्नल भी फलांग गया. आते ही उसने भट्टी पर खड़े लड़के
को डांटा-‘देखता नहीं, तेल कितना गर्म हो गया है ? गैस
कम कर.’ हाथ का थैला दूसरे को थमाया. और जैसे ही कुर्सी खींच कर ऊपर मूर्ति की ओर बढ़ना चाहा तो देखा कि उस कुर्सी पर तो कोई ग्राहक बैठा अपनी बारी का
इंतज़ार कर रहा है. उसने कुछ रूखाई से कहा –‘भाई साहब आप जरा उधर खड़े हो जाइए.’
वह आदमी उठ खड़ा हुआ, उसने कुर्सी खींची और उस पर चढ़ कर पूजा करने लगा. आंख बंद
कर जैसे ही उसने प्रार्थना शुरू की तो उसे लगा कि मूर्ति आज कुछ मुस्कुरा रही है. उसने फिर ध्यान लगाना चाहा तो उसे कि लगा कि
जैसे मूर्ति बुदबुदा रही हो -‘अरे ! अभी तो तूने मुझे कुर्सी
से उठा कर बाहर भेज दिया. अब यहां कर रहा है...’ उसने यकायक आंखें खोल कर देखा, मूर्ति न तो मुस्करा रही थी न ही कुछ बोल रही थी.
उसने पीछे घूम कर देखा, वह आदमी वहां नहीं था. वह धीरे से उतर कर दुकान के
बाहर गया. वह आदमी उसे कहीं नहीं दिखा.
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