गुरुवार, 30 जुलाई 2015

(लघुकथा) गंवई



वह गांव से शहर आकर एक सि‍क्‍योरि‍टी कंपनी में गार्ड लग गया था. रि‍सैटलमेंट कॉलोनी में कि‍राए का एक कमरा भी सही कर लि‍या था. शुरू-शुरू में उसे रात की ड्यूटी मि‍लती. आमतौर से यहां-वहां ग़ुप हाउसिंग सोसायटि‍यों के गेट पर चौकीदारी करता. रात को सीनि‍यर गार्ड सोता और गेट खोलने-बंद करने की ज़ि‍म्‍मेदारी उसी पर रहती. बीच-बीच में डंडा बजाते हुए चक्‍कर भी काटता. सर्द रातों में बहुत मुश्‍कि‍ल होती. जब उसे चौकीदारी का सलीका आ गया तो उसने मालि‍क से बात करके एक बड़ी सी प्राइवेट कंपनी के दफ़्तर में अपनी ड्यूटी लगवा ली. 

दफ़्तर के दरवाज़े पर बैठने के लि‍ए उसे एक स्‍टूल भी दि‍या गया था और वहां कंपनी की तरफ से दि‍न में दो बार मुफ़्त चाय भी मि‍लती थी. मालि‍क भला आदमी था. सुबह-शाम वह मालि‍क को बड़े अदब से सैल्‍यूट करता. भाग कर दरवाज़ा खोलता. दि‍न भर, आने-जाने वालों की मदद करता. अब, सि‍क्‍योरि‍टी कंपनी में गार्ड लगवाने के लि‍ए उसने अपने छोटे भाई को भी गांव से बुला लि‍या. और सुबह अपने साथ ड्यूटी पर ले गया कि‍ वो भी कुछ देख-समझ लेगा. जब कंपनी का मालि‍क सुबह ऑफ़ि‍स पहुंचा तो उसने सैल्‍यूट कि‍या. उसका भाई स्टूल पर बैठा था. मालि‍क ने उसके भाई को देखा तो वह अचकचा कर बोला –‘साब, मेरा भाई है, कल ही गांव से आया है. चल रे नमस्‍ते कर.’

मालि‍क मुस्‍कुरा कर अंदर चला गया. वह पीछे से खि‍‍सि‍याते हुए बोला –‘ये भी नमस्‍ते करना सीख जाएगा साब. अभी गंवई है ना.’
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बुधवार, 29 जुलाई 2015

(लघुकथा) परि‍वार



उस शहर की सड़क के फुटपाथ पर तीन छोटू रहते थे, बड़ा छोटू, छोटा छोटू और बि‍चका छोटू. यही उनके नाम थे. पूरा दि‍न यहां-वहां कूड़े में से, तीनों कुछ-कुछ काम की चीज़ें चुनते रहते और शाम को एक कबाड़ी के यहां उन्‍हें बेचकर चार पैसे कमा लेते. फि‍र खा-पी कर रात को वहीं फ़ुटपाथ से सटी दीवार के साथ लग सो रहते.

दीवार के दूसरी तरफ एक पार्क था. पार्क भी कुछ उजड़ा हुआ सा ही था, उसमें कुछ जुआरी टाइप लोग कभी कभार आकर बैठते, ताश खेलते, शोर शराबा करते और फि‍र चले जाते. उसी पार्क के एक कोने में पांच पि‍ल्‍ले अपनी मां के साथ रह रहे थे. पि‍ल्‍ले बहुत छोटे थे. कभी कोई पि‍ल्‍ला पार्क से बाहर आ जाता तो उनकी मां घसीट कर उसे फि‍र पार्क में ले जाती. एक दि‍न उन्‍होंने देखा कि‍ उनमें से दो पि‍ल्‍ले गुम थे. उनकी मां उस पूरी रात कूं-कूं करती रही. अगले दि‍न, सड़क पार करते हुए उनकी मां को, एक कारवाला कुचल गया. शाम को जब वे सोने के लि‍ए लौटे तो उन्‍होंने पाया कि‍ तीनों पि‍ल्‍ले पार्क से बाहर नि‍कल कर घूम रहे हैं.

उस रात उन्‍होंने उन तीनों पि‍ल्‍लों को अपने पास सुला लि‍या. अब उनके परि‍वार में छ: लोग थे.
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रविवार, 26 जुलाई 2015

(लघुकथा) समय




वह बचपन से ही माता पि‍ता के साथ शहर में रह कर पला बढ़ा. और फि‍र आगे की पढ़ाई करने के लि‍ए वह अमरीका चला गया था. पढ़ाई पूरी करने के बाद वह अब वहीं नौकरी कर रहा था और उसे ग्रीन कार्ड भी मि‍ल गया था. वह लंबे समय बाद भारत लौटा था और आजकल समय नि‍काल कर अपने पुश्तैनी गांव आया हुआ था. गांव आकर उसे लगा कि‍ समय जैसे ठहर सा गया है. सब कुछ लगभग वैसा ही लग रहा था जैसा वह बचपन में देखा करता था. 

आज वह अपने अनुभव सुनाता हुआ दादा के साथ खेतों की ओर जा रहा था, कि‍ वह वहां कैसे-कैसे पढ़ा, कैसे रहा, कैसे वह अब एक बहुत बड़े दफ़्तर में वहां के लोगों के साथ काम करता है. उसके दादा बड़े ध्यान से सुनते चल रहे थे. वह बता रहा था कि‍ वहां की एक बात जो उसे सबसे अच्‍छी लगी, वह थी वहां अनजान लोगों का भी एक दूसरे को देख कर मुस्‍कुराना और हाय-हैलो करके करते हुए नि‍कलना. तभी कंधे पर झोला टांगे सामने से आते हुए एक अधेड़ आदमी ने पास आने पर कहा –‘दद्दा राम राम.’ जवाब में उसके दादा ने भी राम-राम कही और दोनों आगे नि‍कल गए. उसने पूछा कि‍ दादा जी यह कौन था. दादा ने कहा –‘पता नहीं बेटा. कोई राहगीर होगा. खैर, तुम क्‍या कह रहे थे...‘    

उसने कुछ नहीं कहा और दादा के साथ-साथ चलने लगा.
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शुक्रवार, 24 जुलाई 2015

(लघुकथा) चोरी



'अजी सुनते हो, सेफ़्टी पिन नहीं मिल रहीं. कहीं देखीं ?’

'तुमने ही इधर-उधर रख दी होंगी. ध्यान से ढूंढो.

उसने बुदबुदाते हुए ड्रॉअर और अल्मारियां बारी-बारी से खोलनी शुरू कर दीं – ‘दि करता है, आज ही काम से निकाल दूं इसे. जब देखो तब कुछ कुछ चुपचाप उठाकर ले जाती है. और अगर पूछो तो ऐसे एक्टिंग करती है मानो इस तरह की चीज़ तो कभी हमारे घर में थी नहीं शायद.'

वह अख़बार तो पढ़ रहा था पर देख भी रहा था किआज ड्रॉअर और अल्मारियां खोलने-बंद करने की आवाज़ कुछ ज्यादा ही तेज़ थी. उससे नहीं ही रहा गया, पत्नी बुलाया तुम इसे काम से निकाल ही क्यों नहीं देतीं .'

निकाल तो एक मिनट में दूं पर दूसरी कामवाली इतनी आसानी से मिलती कहां है.'

यही तो समझाने की कोशि कर रहा हूं. यह इतने सालों से हमारे यहां काम कर रही है सिवाय छोटी-मोटी चीज़े ले जाने के क्या तुम्हें कभी कोई और शिकायत हुई इससे. मन लगा के काम अच्छा करती है. बिना बात छुट्टियां नहीं करती. इधर-उधर चुगलियां नहीं गाती. अगर हर महीने दो-चार सौ रूपए की चीज़ें यूं ले भी जाती है तो तुम ये मान क्यों नहीं लेतीं किचलो तुमने उसकी तन्ख्वाह ही दो-चार सौ रूपए बढ़ा दी.'

आज वह कुछ नहीं बोली और मुस्कुरा कर टेलिविजन देखने बैठ गई.
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