सोमवार, 25 नवंबर 2013

(लघुकथा) एन. जी. ओ.




दोनों बहुत अच्‍छे दोस्‍त थे. वे आज एक ज़माने बाद दोबारा मि‍ले. दोनों ने पूरी ज़िंदगी साथ-साथ नौकरी कर के बि‍ता दी थी. एक के बेटा-बेटी तो इंजीनि‍यर और डॉक्टर हो गए, पर दूसरे का इकलौता बेटा कि‍सी तरह बी.ए. तो कर गया लेकि‍न उसका कुछ बना नहीं.

‘क्‍या बताऊं, नौकरी के कि‍सी भी इम्‍ति‍हान में पास नहीं ही हो पाया.’
‘कि‍सी पार्टी-वार्टी में ट्राई कि‍या होता, शायद टि‍कट मि‍ल जाती.’
‘ना जी. वहां कहां नयों को जगह मि‍लती है, सभी अपने-अपने बेटे-बेटि‍यों को आगे कि‍ए रहते हैं.’
‘तो फि‍र ?
‘सोच रहा था कि‍ बेटे को एक मंदि‍र खुलवा दूं पर वो नहीं माना. आख़ि‍र, एक एन. जी. ओ. खुलवा दी है. एकदम मॉडर्न और प्रोफ़ेशनल एन. जी. ओ. है, पाई-पाई का हि‍साब रखता है, क्‍या मजाल कि‍ चवन्‍नी भी इधर से इधर हो जाए, चाहे वह नेताओं की हो या फि‍र बाबुओं की.’
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बुधवार, 13 नवंबर 2013

(लघुकथा) ड्राइवर



उन दोनों में अच्‍छी दोस्‍ती थी. वे दोनों ही ड्राइवर थे. एक प्राइवेट कार का, दूसरा सरकारी कार का. दोनों के साहब लोगों के दफ़्तर एक ही बि‍ल्‍डिंग में थे. सुबह अपने-अपने साहबों को दफ़्तर पहुंचाने के बाद गाड़ि‍यां पार्किंग में लगा कर सारा दि‍न साथ ही बि‍ताते थे वे. उनके जैसे दूसरे कई और ड़ाइवर भी थे. लगभग सभी एक दूसरे के बारे में बहुत कुछ जानते समझते थे.

एक दि‍न बातचीत में, प्राइवेट वाले ने बताया कि अगर उसे कभी पैसे की ज़रूरत आ पड़े तो उनकी कंपनी कुछ छोटा-मोटा  एडवांस दे देती है जो बाद में सेलरी से एडजस्‍ट हो जाता है. सरकारी ड़्राइवर ने कहा कि भई उनके यहां तो सरकार में इस तरह से एडवांस देने का कोई सि‍स्‍टम नहीं है पर हां, जब कभी ऐसी ज़रूरत आ ही पड़़े तो ट्रैफ़ि‍क में तेज़ी से चलते हुए एक ज़ोरदार ब्रेक मार देता हूं. पीछे वाली गाड़ी मेरी कार में ठुक जाती है, कार रि‍पेयर के लि‍ए भेजनी पड़ती है, वर्कशॉप वाला रि‍पेयर के ख़र्चे में से दो-तीन हज़ार का कमीशन दे देता है. साथ ही साथ, दो चार दि‍न की छुट्टी भी मि‍ल जाती है. वर्ना, कम पेट्रोल भरवा कर ज्‍यादा पेट्रोल की पर्ची लेने से भी कुछ कुछ काम तो हर महीने यूं भी चलता ही रहता है.



फि‍र दोनों हँस दि‍ए.
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रविवार, 10 नवंबर 2013

(लेख) कुत्‍ते



कुत्‍ते, बाहर से देखने में भले ही भॉंति‍ भॉंति‍ के लगते हों, पर अंदर से सब कुत्‍ते ही होते हैं. एक दम पक्‍के कुत्‍ते.  

कुत्‍तो को कुछ भी मि‍ल-बॉंट कर खाने की आदत नहीं होती. पेट कि‍तना भी भरा हो, मुँह ज़रूर मारते हैं. इसी तरह जहां मौक़ा देखा, टॉंग उठा देते हैं.
 
कुत्‍ते बहुत ढीठ होते हैं. उनकी ढि‍ठाई उनकी पूँछ से नि‍कलती है. न उनकी पूँछ सीधी होती है न ढि‍ठाई जाती है. इनकी पूँछ टॉगों के बीच तभी आती है जब इन्‍हें अपने से सवा-सेर मि‍लता है. इतना ही नहीं, सवासेर आगे तो इसे हि‍लाते भी सलीके से हैं. पट्टे की भी आदत होती है इन्हें, जहां कि‍सी ने टुकड़ा डाला उसी के हत्‍थे चढ़ जाते हैं. कुत्‍ते देश भर के हर क्षेत्र में पाए जाते हैं. सड़कों पर, मकानों में, मैदानों में, पि‍छवाड़ों में और भी न जाने कहां कहां. कुत्‍ते हर रंग, शक्ल और सूरत के होते हैं. काले कुत्‍तों के तो ठाठ भी अलग होते हैं क्‍योंकि‍ कुछ पंडि‍जी टाइप टोटकेबाज़, अपने-अपने यजमानों को बताते हैं कि‍ जाओ इनकी ख़ास आवभगत करो. यह इनके लि‍ए बोनस रहता है.

कुत्‍ते जब बात भी करते हैं तो ऐसा लगता है जैसे भौंक रहे हों. कुत्‍ते बहुत कड़े जीव होते हैं, उन्‍हें कभी कि‍सी ने मुस्‍कुराते नहीं देखा होता इसीलि‍ए बात-बात पर भौंकने के साथ-साथ काटने भी दौड़ते हैं. कुत्‍ते कि‍सी को नहीं बख्‍़श्‍ते, सबको दौ़ड़ा लेते हैं और बहुत दूर तक छोड़ कर आते हैं. दूसरों के इलाक़े में नहीं जाते, बस अपनी ही गली में शेरपंती करते हैं.

कुत्‍ते ग़ज़ब के मतलबी होते हैं, उन्‍हें हड्डी डालो तो मुँह में दबा चलते बनते हैं. मि‍ल-बॉंट के खाने में वि‍श्‍वास नहीं रखते, दूसरे को भनक लग जाए तो गुर्रा कर बंदरों की तरह दॉंत दि‍खाते हैं. कि‍सी के पल्‍ले कुछ पड़े न पड़े, रात रात भर दूर-पार तक आसमान सि‍र पे भी उठाए रखते हैं.

(डि‍स्‍क्‍लेमर : कुत्‍तों को कि‍सी ज़िंदा या मृत व्‍यक्‍ति‍ के रूप में न देखा जाए)
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शनिवार, 2 नवंबर 2013

(लघुकथा) शहर


वे प्रकृति के चि‍तेरे रहे.‍ प्रकृति चित्रण करते करते सत्‍तर बसंत कब उन्‍हें लॉंघ गए पता ही न चला. मान-सम्‍मान-पुरस्‍कार सब कुछ मि‍ला उन्‍हें. अगली पीढ़ी ने चि‍त्रकला उनसे वि‍रासत में पाई. पुत्र भी जाना माना चि‍त्रकार है और पोता भी उन्‍हीं के पदचि‍न्‍हों पर चल नि‍कला. उन दोनों के चि‍त्रों में भी प्रकृति ही रंग भरती है.

उन्‍होंने प्रकृति‍ की गोद में बसे एक गांव में जब पहले-पहल ऑंखें खोलीं तो ऊपर बि‍छा असीम नीला आसमान पाया. बस वही उनमें बस गया. उनके हर चि‍त्र का नीला आकाश उनकी पहचान बन गया. एक दि‍न वे शहर आ बसे. बेटा यहीं पला बढ़ा. उसके चि‍त्रों में भी आसमान की छटा देखते ही बनती है. पर वह आसमान, नीला नहीं सलेटी रंगता है.

पर अब वे पोते के बने चि‍त्र देखते हैं तो कुछ दुखी दिखते हैं क्‍योंकि‍ वह आसमान को काले रंग में बनाने लगा है.
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