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गुरुवार, 3 सितंबर 2015

(लघुकथा) आढ़ति‍या



वह आढ़ति‍ये का इकलौता बेटा था. पि‍ता का, सब्‍ज़ी की आढ़त का अच्‍छा-ख़ासा काम था. मंडी में, कई सब्‍ज़ि‍यों और फलों के किंग माने जाते थे. बड़ी सी कोठी थी. कारें थीं. कई प्रापर्टी थीं. लोगों पर लाखों का उधार था. पि‍ता की सलाह थी कि‍ वह यही पुश्‍तैनी काम संभाल ले, पर उसे पि‍ता का यह काम पसंद न था. वह ख़ुद अच्‍छा पढ़ा-लि‍खा था. समय का फेर, पि‍ता की एक दि‍न मृत्‍यु हो गई. उसने सारा कारोबार और कई प्रापर्टी बेच कर एक हि‍ल स्‍टेशन से पहले, हाइवे के कि‍नारे एक बहुत बड़ा वॉटरपार्क बना लि‍या, जो कुछ ज्‍यादा नहीं चलता था. उसने कुछ कमरे बगल ही में डाल कर मोटल का बोर्ड भी लगा लि‍या. लेकि‍न दि‍न फि‍र भी न फि‍रे. अब उसने मोटल की कि‍चन को रेस्‍टोरेंट में बदल दि‍या. बात अब भी नहीं बन रही थी. कुछ-कुछ लोग तो आते पर इतनी कमाई भी नहीं हो रही थी कि‍ खर्चा ही नि‍कल जाता. वह काफी परेशान रहने लगा.

एक दि‍न उसके दादा उससे मि‍लने आए. उसकी हालत, उनसे छुपी हुई न थी. दादा ने उसे सलाह दी, जि‍से उसने पहली बार मानते हुए, वॉटरपार्क के पीछे की तरफ एक बड़ा सा मंदि‍र बनवा लि‍या. मंदि‍र का रास्‍ता, वॉटरपार्क के ठीक बीच से जाता था. बाहर, मंदि‍र के नाम का एक बड़ा सा द्वार टाइप बोर्ड लगवा दि‍या. हाइवे के बाईं ओर, दोनों दि‍शाओं में पंद्रह कि‍लोमीटर दूर तक, हर एक कि‍लोमीटर पर भी बोर्ड लगवाए जि‍न पर ‘प्राचीन मंदि‍र ___ कि‍लोमीटर दूर’ लि‍खा हुआ था. मंदि‍र तक पहुंचते-पहुंचते हर बोर्ड पर एक कि‍लोमीटर कम होता जाता था. बाहर, फ़्री-पार्किंग बहुत बड़ी करवा दी. मेन गेट के आस-पास चुन्‍नी, प्रसाद, माला, खेल-खि‍लौने बगैहरा की कुछ दुकानें खुलवा दीं और भाड़े के कई भि‍खारी बि‍ठा दि‍ए. धंधा चमक नि‍कला.

तब से, उसे दादा की सलाह की भी ज़रूरत नहीं रही.
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रविवार, 6 जुलाई 2014

(लघुकथा) डर



उस गांव के बीचोबीच से होकर एक सड़क नि‍कलती थी. सड़क के इधर हिन्‍दू रहते थे, सड़क के उस पार मुस्‍लि‍म रहते थे. दोनों तरफ, मुसलामानों के बीच कुछ-कुछ हि‍न्‍दू और, हिन्‍दुओं के बीच कुछ-कुछ मुसलमान भी रहते थे. उस गांव में न मस्‍जि‍द थी न मंदि‍र और धर्म को लेकर, दोनों में कभी कोई ऊंच-नीच भी सुनी नहीं गई. गांव के सभी लोग ग़रीब थे.

धीरे-धीरे उस गांव में भी तरक़्की पहुंची. लोगों को चार पैसे का आसरा होने लगा. हिन्‍दुओं को लगा कि‍ चलो एक मंदि‍र बनाया जाए, मुसलामानों को भी लगा कि‍ गांव में एक मस्‍जि‍द तो होनी ही चाहि‍ए. पर दोनों को लगता कि‍ कहीं इसे भड़काने वाली बात तो न माना जाएगा ! आख़ि‍र फ़ैसला हुआ कि‍ हिन्‍दुओं वाली तरफ का मंदि‍र उसी तरफ के मुसलमान बनाएंगे और, मुसलमानों की तरफ एक मस्‍जि‍द उसी तरफ वाले हि‍न्‍दू बानएंगे. यह भी तय रहा कि‍ बनाने वाले ही उनका रख-रखाव भी करेंगे. 

तरक़्की तो उन्‍होंने यूं भुगत ली. पर अब मंदिर और मस्‍जि‍द के कंगूरों पर गि‍द्ध बैठने लगे हैं.
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शनिवार, 3 मई 2014

(लघुकथा) खण्डित मूर्ति‍



उसके गांव में एक मंदि‍र था. वह उस मंदि‍र के अंदर कभी नहीं गया था. मंदि‍र में जाने की उसकी इच्‍छा तो बहुत होती थी पर उसके लोगों का मंदि‍र में जाना मना था. उसके लोगों का माद्दा नहीं था कि‍ अपना मंदि‍र बनवा लें. वह दूर से ही मंदि‍र को प्रणाम करके चला आता था.  

मंदि‍र वालों ने एक दि‍न, एक और भगवान की मूर्ति‍ स्‍थापि‍त करने का फ़ैसला कि‍या. पर जब मूर्ति‍ मंदि‍र पहुंची तो पता चला कि‍ उसमें तो दरार है. खण्‍डि‍त मूर्ति‍ मंदि‍र में प्रति‍स्‍थापि‍त नहीं की जा सकती थी इसलि‍ए भक्‍त लोग उसे एक पीपल के नीचे छोड़ आए. जब उसे पता चला तो वह बहुत खुश हुआ कि‍ पीपल के नीचे भगवान वि‍राजे हैं. वह वहां गया और भगवान की मूर्ति‍ को प्रणाम कर बोला –‘कोई बात नहीं प्रभु तुम यहीं बैठो, आज तक तुमने मेरा ध्‍यान रखा, अब मैं तुम्‍हारा ध्‍यान रखा करूंगा.’

वह रोज़ सुबह वहां आता, प्रणाम करता और झाड़ू-बुहारी करके लौट जाता. अब उसने मंदि‍र जाना छोड़ दि‍या था.


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सोमवार, 25 नवंबर 2013

(लघुकथा) एन. जी. ओ.




दोनों बहुत अच्‍छे दोस्‍त थे. वे आज एक ज़माने बाद दोबारा मि‍ले. दोनों ने पूरी ज़िंदगी साथ-साथ नौकरी कर के बि‍ता दी थी. एक के बेटा-बेटी तो इंजीनि‍यर और डॉक्टर हो गए, पर दूसरे का इकलौता बेटा कि‍सी तरह बी.ए. तो कर गया लेकि‍न उसका कुछ बना नहीं.

‘क्‍या बताऊं, नौकरी के कि‍सी भी इम्‍ति‍हान में पास नहीं ही हो पाया.’
‘कि‍सी पार्टी-वार्टी में ट्राई कि‍या होता, शायद टि‍कट मि‍ल जाती.’
‘ना जी. वहां कहां नयों को जगह मि‍लती है, सभी अपने-अपने बेटे-बेटि‍यों को आगे कि‍ए रहते हैं.’
‘तो फि‍र ?
‘सोच रहा था कि‍ बेटे को एक मंदि‍र खुलवा दूं पर वो नहीं माना. आख़ि‍र, एक एन. जी. ओ. खुलवा दी है. एकदम मॉडर्न और प्रोफ़ेशनल एन. जी. ओ. है, पाई-पाई का हि‍साब रखता है, क्‍या मजाल कि‍ चवन्‍नी भी इधर से इधर हो जाए, चाहे वह नेताओं की हो या फि‍र बाबुओं की.’
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