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बुधवार, 25 जून 2014

(लघुकथा ) बड़े लोग



मेरे पड़ोसी का बेटा बचपन से ही बड़ा आदमी बनने के ख़्वाब देखा करता था. उसकी चाह पूरी होती भी दि‍खने लगी जब पढ़ाई-लि‍खाई में उसकी कोई रूचि‍ न रही, लेकि‍न बातों का पहलवान नि‍कला. और आख़ि‍र वो एक दि‍न भी आ ही गया जब ‘सीधे बारहवीं करें’ टाइप एक कॉलेज से उसके लि‍ए  स्‍नातक की डि‍ग्री जुटा ली गई. पि‍ता ने एक वकील दोस्‍त की नि‍गेहबानी में समाजसेवा के लि‍ए उसे एक एन. जी. ओ. खुलवा दी. बाक़ायदा बोर्ड लगाया गया. ख़र्चे की स्कीम बना ली गई. हर तरह के रजि‍स्‍टर और वाउचर भी तैयार कर लि‍ए, बस पैसे आने का ही मसला कुछ बन नहीं रहा था.

पर उस शाम, उनके घर जश्‍न का सा माहौल था. बाक़ायदा कुछ सेलि‍ब्रेशन सा चल रहा था. घर में कई लोग आए हुए थे. हल्के संगीत पर खाना-पीना हो रहा था. बीच-बीच में, ठहाकों की भी आवाज़ बाहर तक आ रही थी. घर के बाहर कई गाड़ि‍यां पार्क थीं. 

मैंने घर में घुसते हुए पत्‍नी से पूछा –‘तो इनके बेटे का रि‍श्‍ता हो गया क्‍या ? लड़की वाले कौन लोग हैं जी ?

‘नहीं जी. उसकी मां बता रही थी कि‍ एन. जी. ओ. के लि‍ए ग्रांट मि‍लने की बात आज फ़ायनल हो गई है.’ – कहते हुए पत्‍नी रसोई में चली गई.
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सोमवार, 25 नवंबर 2013

(लघुकथा) एन. जी. ओ.




दोनों बहुत अच्‍छे दोस्‍त थे. वे आज एक ज़माने बाद दोबारा मि‍ले. दोनों ने पूरी ज़िंदगी साथ-साथ नौकरी कर के बि‍ता दी थी. एक के बेटा-बेटी तो इंजीनि‍यर और डॉक्टर हो गए, पर दूसरे का इकलौता बेटा कि‍सी तरह बी.ए. तो कर गया लेकि‍न उसका कुछ बना नहीं.

‘क्‍या बताऊं, नौकरी के कि‍सी भी इम्‍ति‍हान में पास नहीं ही हो पाया.’
‘कि‍सी पार्टी-वार्टी में ट्राई कि‍या होता, शायद टि‍कट मि‍ल जाती.’
‘ना जी. वहां कहां नयों को जगह मि‍लती है, सभी अपने-अपने बेटे-बेटि‍यों को आगे कि‍ए रहते हैं.’
‘तो फि‍र ?
‘सोच रहा था कि‍ बेटे को एक मंदि‍र खुलवा दूं पर वो नहीं माना. आख़ि‍र, एक एन. जी. ओ. खुलवा दी है. एकदम मॉडर्न और प्रोफ़ेशनल एन. जी. ओ. है, पाई-पाई का हि‍साब रखता है, क्‍या मजाल कि‍ चवन्‍नी भी इधर से इधर हो जाए, चाहे वह नेताओं की हो या फि‍र बाबुओं की.’
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