शुक्रवार, 21 मार्च 2014

(ग़ज़ल) बड़े लोग



जो मुझसे बड़े हैं
बैसाखी पे खड़े हैं.

देखो न आदमकद
दुगने तो गड़े हैं.

मेरी सुनेंगे क्या
वो तो खुद अड़े हैं.

हारने का ख़ौफ़ दो
उन्हें, जो न लड़े हैं.

पलटता नहीं हूं मैं
मेरे फ़ैसले कड़े हैं.
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सोमवार, 3 मार्च 2014

(लघुकथा) फ़्लैट.



वह गॉंव से शहर आ गया था और कुछ ले-दे के रेलवे लाइन के कि‍नारे बंग्‍लादेशि‍यों के साथ-साथ उसने भी एक झुग्‍गी डाल ली थी. गॉंव में उसके पास यूं भी कुछ नहीं था दूसरों के यहां कि‍सानी-मज़दूरी करता था, यहां चौकीदारी करने लगा. एक दि‍न वह दूसरे गार्ड से बात कर रहा था कि‍ शहरों में लोग जात-बि‍रादरी के हि‍साब से नहीं रहते.

वह गार्ड उस पर हँस दि‍या –‘अरे भई नहीं. वहां गांवों में लोग जैसे ब्राह्मण, क्षत्रि‍य, वैश्‍य, शूद्र के हि‍साब से रहते हैं, वैसे ही सरकार यहां उन्‍हें एच.आई.जी, एम.आई.जी. एल.आई.जी. और जनता फ़्लैटों के नाम वाली अलग अलग बस्‍ति‍यों में बसाती है.’

वह चुप था. शायद सोच रहा था कि,‍ नहीं अब उसे जनता फ़्लैट से ऊपर का सपना देखना होगा.
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