बुधवार, 16 अक्तूबर 2013

(लघुकथा) बकरा





बहुत पुरानी बात है. कहीं दूर घने जंगल में एक मंदि‍र था. उस मंदि‍र में, लोग बकरों की बलि‍ देने के बजाय उन्‍हें यूं ही आवारा छोड़ जाते थे. ऐसे ही आवारा बकरों में से एक बकरा बहुत छंटा हुआ नि‍कला, वह बकरि‍यों के पीछे बोक्‍काया फि‍रता. उसने दूसरे बकरों को सींग मारे और अपनी प्रधानगी में बकरि‍यों की पंचायत बना ली.

बकरि‍यां आए दि‍न उसकी छत्रछाया तले मंदि‍र में अपनी आरती उतरवा आतीं. ज़िंदगी भर उसने एक से एक ज़बर बकरि‍यां देखीं. बकरि‍यों को सहलाते-सहलाते, बकरा पसरे हुए ही बुढ़ा गया. बुढ़ैती में भी, एक और छबीली बकरी उसके पीछे लगी रह कर आरती उतरवाती रही. पर एक दि‍न कुछ मेमनों को ये सब रास न आया और फट्टा हो ही गया. दुनि‍या-जहान ने खूब मिर्च-मसाला लगा कर पूरे जंगल में तरह-तरह की बातें उड़ा दीं. पर कि‍सी का कुछ न बि‍गड़ा. बात आई-गई हो गई. इधर मंदि‍रबाज़ी चालू रही. उधर, छबीली भी आगे नि‍कल गई, उसने दूसरा जंगल चुन लि‍या.

आज उन सबके अपने-अपने जंगल हैं और उनके भीतर अपने-अपने मंदि‍र.
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बुधवार, 9 अक्तूबर 2013

सुबह होगी.



इन दरीचों से,
ठंडे झोंके सा चला आता है नख़लि‍स्‍तान ,
अफ़वाह तो महज मजहब के दुश्‍मन ने उड़ाई होगी.

चल आ बैठ,
फूंक दें रूस्‍वाइयां ज़माने भर की आज,
दामन में कांटों की बात (?) दुश्‍मन ने उड़ाई होगी.

आसां है बहुत
रोशनी को बुर्कों में दफ़न कर देना यार,
कंदील से घर जला देने की दुश्‍मन ने उड़ाई होगी.

चलो तो चलो
तूफ़ानों की तरह कि वो रूकते नहीं हमदम,
तूफ़ानों के ठहर जाने की दुश्‍मन ने उड़ाई होगी.  

भरोसा तो रख,
गुजर जाएगा ये वक्‍त भी रात की तरह,
आफ़ताब ठहर जाने की भी दुश्‍मन ने उड़ाई होगी.

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