रविवार, 24 मई 2015

(लघुकथा) कुत्ता




गांव में उन दोनों के परि‍वार, आपस में दुश्‍मनी के ही कारण जाने जाते थे. दोनों ही परि‍वार कोई बहुत अमीर नहीं थे पर फि‍र भी उन दोनों परि‍वारों में पुश्‍तैनी दुश्‍मनी अमीरी से कम न थी. दुश्‍मनी कि‍स बात पर चली आ रही थी यह अब कि‍सी को याद तक न था. उस दि‍न भी, फि‍र कि‍सी बात पर झगड़ा हुआ. झगड़े में दोनों परि‍वारों के सभी लोग शामि‍ल हो गए. और झगड़ा इतना बढ़ा कि‍ एक परि‍वार ने दूसरे परि‍वार के एक व्‍यक्‍ति‍ की हत्‍या कर दी. पंचायत हुई, फि‍र पुलि‍स आई और कोर्ट-कचेहरी शुरू हो गई.

ऋतुएं बदलने लगीं, बच्‍चे बड़े होते रहे, बड़ों की शादि‍यां होतीं तो मुकदमों की तारीखों के हि‍साब से दि‍न-वार तय होते. सूखा पड़ता या फ़सल अच्‍छी होती, कोर्ट-कचेहरी की हाजरि‍यां बि‍ना नागा चलती रहतीं. यूं ही पता नहीं कि‍तने साल बीत गए. इनके केस, वकीलों की नई पीढ़ी ने संभाल लि‍ए.

मुकदमें की ऐसी ही एक पेशी के दौरान एक परि‍वार के सबसे बूढ़े आदमी ने साथ वाले का सहारा लेकर उठते हुए जज साहब को दोनों हाथ जोड़ कर कहा - साहेब, वो कत्‍ल मुझसे हो गया था. मैं कानून का मुज़रि‍म हूं. आप चाहे जो सज़ा दे दें.  जज साहब ने उसे गि‍रफ़्तार करने का हुक्‍म दि‍या. जो पुलि‍स वाला उसे हवालात ले जा रहा था उसने पूछा –‘दद्दा, क्‍या हुआ जो यूं जेल मोल ले ली.

क्‍या बताउं, बहुएं खाना देने में आना-कानी करती हैं. बेटे दवा-दारू के नाम पर ही चि‍ल्‍लाने लगते हैं. अपने-आप अंदर-बाहर आना-जाना भी अब ठीक से नहीं हो पाता. ऐसे में जेल ही भली लगी. खाना और दवा तो टैम-टैम से मि‍ल जाएंगे ना. उसके बाद पुलि‍स कांस्‍टेबल और वह चुपचाप चलते रहे.

लॉक-अप में लाठी के सहारे धीरे से बैठते हुए उसने बस इतना ही कहा –‘पता नहीं, मेरे पीछे, अब हमारे कुत्‍ते को भी कोई खाना पूछेगा या नहीं. राम जाने.   
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बुधवार, 20 मई 2015

(लघुकथा) न्यायकथा




गांव में वे दोनों आसपास रहते थे. दोनों की कुछ-कुछ पुश्‍तैनी ज़मीन थी, वह भी साथ-साथ ही थी. कभी मेड़़, कभी पेड़, कभी घास, कभी बच्चे, कभी औरतें, कभी कुछ कभी कुछ ...मतलब ये कि‍ आए दि‍न कि‍सी न कि‍सी बात को लेकर दोनों में लड़ाई-झगड़ा होता ही रहता था. कभी गाली-गलौज तो कभी-कभी बात हाथा-पाई तक पहुंच जाती थी. आए दि‍न पंच-पंचायत भी होती. एक दि‍न, कि‍सी पेड़ की छंटाई को लेकर बात इतनी बढ़ी कि‍ एक ने दूसरे की हत्‍या ही कर दी.

पुलि‍स आई, तहकीकात हुई, केस बना, हत्‍यारे को जेल भेज दि‍या. कोर्ट-कचेहरी होने लगी. दि‍न, महीने, साल बदलने लगे. गवाह कभी जाते, कभी न जाते. जज आते, चले जाते. गवाह वाकया भूलने लगे तो वकील-लोग केस की तारीख़ें. दोनों के परि‍वारों के बच्‍चे बड़े होते रहे, इस बीच उनकी शादि‍यां भी होने लगीं. बेटि‍यां जाने लगीं, नई बहुएं आने लगीं. बीच-बीच में, उनके पोते-पोति‍यों को केस के बारे में भी बताया जाता. दोनों के परि‍वारों में दुश्‍मनी तो बनी रही पर कोर्ट-कचेहरी करते-करते थक चले थे वे. 
 
एक दि‍न, ऐसा भी आया कि‍ पर्याप्‍त सबूतों के अभाव में कचेहरी ने उसे बरी कर दि‍या. उसके परि‍वार में कोई ख़ास खुशी नहीं थी. हां यह बात अलग है कि‍ दोनों ही परि‍वारों ने चैन की सांस ली कि‍ चलो काले कोट वालों से पीछा छूटा. 

वह अब बूढ़ा हो चुका था. उसकी पीठ झुक चुकी थी. उसकी हुक्‍के की आदत अब बीड़ी में बदल गई थी. 

एक दि‍न, वह उसी झगड़े वाले पेड़ के नीचे बैठ, बीड़ी पीते हुए याद करने की कोशि‍श कर रहा था कि‍ आखि‍र उस दि‍न हुआ क्‍या था.
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