वह
बहुत बड़े समीक्षक थे. इतने बड़े कि बहुत से लोग तो डर के मारे कोशिश भी नहीं
करते थे कि उनका काम वे देखें, न जाने क्या क्या नुक़्स निकाल दें और उनकी
कृति जन्म लेते ही धराशायी हो जाए. तमाम पत्र-पत्रिकाओं में उनके समीक्षा कॉलम चलते
थे. टी.वी. चैनलों पर तिरछे बैठ कर बातें करते थे. समीक्षकी के सिलसिले में
देश-विदेश आना जाना लगा रहता था.
एक
दिन उनका, एक कलाकार मित्र के घर जाना हुआ. जैसे ही घर पहुंचे तो देखते क्या
हैं कि कमरे में ज़मीन पर एक छोटी सी एब्स्ट्रैक्ट पेंटिग रखी है. उसे देखते
ही उनके मुँह से निकला –‘वाह वाह वाह क्या बात है. जीवन, प्रकृति और ब्रह्माण्ड का ऐसा अद्भुत चित्रण मैंने पहले कभी नहीं देखा.
भगवान ने निश्चय ही तूलिका से ही ब्रह्माण्ड की रचना की
होगी, भगवान वैज्ञानिक नहीं कलाकार रहा होगा, पक्का. कोई एक ही रंग से भी ऐसी
कलाकृति बना कैसे सकता है, मैं तो सोच भी नहीं सकता. इसमें रंगों की छाया का
सांमजस्य अद्भुत है अद्भुत, वाह.’
उनके
मित्र ने भीतर की तरफ देखते हुए आवाज़ दी -‘बाई, जरा इधर आना. देखो तो
तुम्हारी लापरवाही की ये साहब कैसी तारीफ कर रहे हैं.’ फिर उनकी तरफ मुड़ कर बोले–‘हमारी कामवाली ने कैनवस पे ग़लती से ये रंग गिरा दिया था.’
इस
बीच कामवाली बाई परेशान सी दौड़ती चली आई और आकर किनारे खड़ी हो गई.
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