उस पार्क के एक
कोने में वह पता नहीं, एक दिन, कैसे और कहां से आ गया था. तब वो इतना छोटा था कि
मुश्किल से उसकी आंखें ही खुलती थीं. सुबह की सैर को आए लोगों के पांवों में उलझते-उलझते
बचता था वो. लोग उसे कुछ कुछ डाल जाते. बाकी दिन भर, खाने को उसे क्या मिलता या
कुछ मिलता भी था, पता नहीं. वह अपने उसी कोने के आस-पास ही रहता. आने-जाने वालों
के संग दुम हिलाता और डरता-दुबकता कुछ डग, उनके आगे-पीछे भी चलता. अब वह
कुनमुनाने से आगे, छोटा-मोटा भौंक भी लेता था. वहां भटकने वाले दूसरे कुत्ते उस
पर कोई ध्यान नहीं देते थे, न ही वह उनके पीछे डोलता था. धीरे-धीरे बड़ा हो रहा
था.
पास
ही, उसी पार्क के बाहर एक
विक्षिप्त सा भिखारी लेटा रहता था. एक दिन, दो पुलिस वाले उसे पता नहीं कहां,
ज़बरदस्ती ले गए. जाते हुए उसने, पिल्ले को एक बार हसरत भरी निगाहों से देखा
और फिर अनमना सा धीरे-धीरे उनके साथ चला गया. पिल्ले को यह बात भी समझ नहीं आई.
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