मंगलवार, 30 अक्तूबर 2012

(लघुकथा) पि‍ल्ला




उस पार्क के एक कोने में वह पता नहीं, एक दि‍न, कैसे और कहां से आ गया था. तब वो इतना छोटा था कि‍ मुश्‍कि‍ल से उसकी आंखें ही खुलती थीं. सुबह की सैर को आए लोगों के पांवों में उलझते-उलझते बचता था वो. लोग उसे कुछ कुछ डाल जाते. बाकी दि‍न भर, खाने को उसे क्‍या मि‍लता या कुछ मि‍लता भी था, पता नहीं. वह अपने उसी कोने के आस-पास ही रहता. आने-जाने वालों के संग दुम हि‍लाता और डरता-दुबकता कुछ डग, उनके आगे-पीछे भी चलता. अब वह कुनमुनाने से आगे, छोटा-मोटा भौंक भी लेता था. वहां भटकने वाले दूसरे कुत्‍ते उस पर कोई ध्‍यान नहीं देते थे, न ही वह उनके पीछे डोलता था. धीरे-धीरे बड़ा हो रहा था.

पास ही, उसी पार्क के बाहर एक वि‍क्षि‍प्‍त सा भि‍खारी लेटा रहता था. एक दि‍न, दो पुलि‍स वाले उसे पता नहीं कहां, ज़बरदस्‍ती ले गए. जाते हुए उसने, पि‍ल्‍ले को एक बार हसरत भरी नि‍गाहों से देखा और फि‍र अनमना सा धीरे-धीरे उनके साथ चला गया. पि‍ल्‍ले को यह बात भी समझ नहीं आई.
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शनिवार, 20 अक्तूबर 2012

(लघुकथा) इट्स कूल



बाबा पहली बार अपने बेटे के पास, गॉंव से शहर आए थे. बेटे ने यहां अपना काम जमा लि‍या था जबकि‍ वे वहां मास्‍टरी से रि‍टायर हुए रहे.

आज घर में धुर सुबह से ही बहुत चहल-पहल थी. कोई कि‍सी को जगा रहा था. कोई गीज़र गर्म करने को कह रहा था तो कोई नए कपड़े की लगाए था. कोई पूजा सामग्री को पूछ रहा था. बहू ने भजन का चैनल लगा दि‍या था. आज बड़ा शुभ दि‍न था, मुंह-अंधेरे मंदि‍र जा कर ही पूजा-अर्चना करना तय हुआ था. पहले सोचा कि‍ सुबह ख़ुद ही कार लेकर मंदि‍र चले चलेंगे फि‍र लगा कि‍ नहीं, मंदि‍र दूर है इसलि‍ए अच्‍छा है कि‍ ड्राइवर कर लि‍या जाए, मन प्रसन्‍न रहेगा.

बाबा को भी पूछा कि‍ चलोगे ?  जैसा कि‍ होता है, बाबा ने मना कर दि‍या कि‍ नहीं भई आप लोग ही हो आओ. सब, बाबा को लाइटें और गेट ठीक से बंद कर लेने की हि‍दायत दे कर नि‍कल गए. बाबा कमरे में वापि‍स आ गए.

‘मध्‍यवर्ग की जेब में पास चार पैसे आ जाएं तो भगवान का जीना दूभर कर देता है ये‘- टी.वी. बंद करते हुए बाबा अपने से बुदबुदाए और फि‍र सोने चल दि‍ए.

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टोपीगान
























ओ रे बाबा गॉंधी,
वो टोपी
जो तूने तो कम पहनी,
पर
हि‍न्‍दुस्‍तान को ज्‍यूँ गहना दी,
तेरे जाने के बाद
चपाटों ने
पूरे देश को पहना दी,

फि‍र न पूछ कि‍
तेरी इस टोपी से क्‍या क्‍या व्‍याभि‍चार हुआ.
रोज़ हुआ, हर बार हुआ.

अबके जो नए हल्‍लाबोली से आए हैं
इसे फि‍र संग लाए हैं.
घर से चले तो जेब में मोड़े हैं
मजमे में पहुँचे तो
कश्‍ती सी ओढ़े हैं,

ढर्रे की रवानी
ज़ि‍द सी ठानी,

ऐसे में,
जगजीत मुझे
न जाने क्‍यों
फि‍र तेरी याद सी हो आई कि‍
वो काग़ज़ की कश्‍ती
वो बारि‍श का पानी….
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