सोमवार, 6 जुलाई 2015

(लघुकथा) जीवन



वह स्‍कूल से नि‍कल कर कॉलेज आया तो उसकी ज़िंदगी में मानो पंख लग गए. नए दोस्त बने. कोई पूछने वाला नहीं, कोई बंदि‍श नहीं. जहां दि‍ल कि‍या वहां घूमे, जो चाहा सो कि‍या. देखते ही देखते तीन साल यूं ही बीत गए. सब ग्रेजुएट हो गए. कुछ नौकरि‍यों में चले गए कुछ आगे पढ़ने लगे. कुछ ने अपने काम-धंधे कर लि‍ए. कुछ दूसरे शहरों को भी चले गए. धीरे-धीरे सभी अपनी-अपनी ज़िंदगि‍यों में सैटल होने लगे. अलबत्‍ता अब वे एक दूसरे की सगाई और शादी-वि‍वाह पर एक दूसरे से मि‍लते. 

फि‍र एक दूसरे के यहां लंच-डि‍नर पर मि‍लना होता रहा. कुछ समय बाद एक दूसरे के बच्‍चों के जन्‍मदि‍न की ख़बरों के बीच, घरों से लेकर फ़ार्म-हाउसों तक में मनाई जाने वाली पार्टि‍यों में मि‍ल बैठते. फि‍र एक वक्‍त ऐसा भी आया कि‍ बच्‍चों की पढ़ाइयों के दौर चले तो एक दूसरे से मि‍लना-मि‍लाना कम हो गया. बच्‍चों के भवि‍ष्‍य संवारने की कोशि‍शों के साथ-साथ उनके कल की चिंताएं सताने लगीं.  

बच्‍चे सैटल होने लगे तो उनकी सगाइयों और शादि‍यों के दि‍न आए. एक ज़माने बाद वे फि‍र एक दूसरे से मि‍लने लगे. ज़िंदगी के पुराने दि‍न जैसे एक बार फि‍र लौट आए थे. पर अब उनकी बातों में सेहत और बीमारि‍यां भी शामि‍ल हो गई थीं. पीने-पि‍लाने पर भी संयम देखा जाने लगा.

एक दि‍न वह रि‍टायर हो गया. धीरे-धीरे औरों के भी रि‍टायर होकर नई ज़िंदगी शुरू करने की ख़बरें मि‍लतीं, अपने-अपने मनसूबों और उन पर डटे रहने की बातें अब अक्‍सर फ़ोन पर होतीं. यह बात भी अक्‍सर होती कि‍ चलो यार एक दि‍न कि‍सी के यहां मि‍लने का प्रोग्राम बनाया जाए. लेकि‍न हर बार कि‍सी न कि‍सी कारण, मि‍लने का प्रोग्राम बनते-बनते रह ही जाता. कि‍ तभी एक दि‍न, एक दोस्‍त के गुजर जाने की बुरी ख़बर मि‍ली. सभी एक ज़माने बाद, उस दि‍न श्‍मशान में मि‍ले. सबने एक-दूसरे के सुख-दु:ख बांटे.

अचानक उसने पाया कि‍ अब उसकी ज़िंदगी में, कि‍सी न कि‍सी की मृत्‍यु पर शोक जताने जाना भी चुपचाप शामि‍ल हो गया था.
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