वह गॉंव में रहता
था. मस्त था. बचपन से सीधे प्रौढ़ावस्था में पांव रखने की ज़रूरत नहीं थी उसे. कुछ
साथ पढ़ने-लिखने वाले दोस्त थे तो कुछ बचपन
के संगी-साथी. उनके साथ समय मज़े में गुजर रहा था. खुल कर ठहाके लगाता था वह. दुनिया
से कोई ख़ास ग़िला शिक़वा न था. पढ़ने लिखने में भी ठीक ही था. कविताएं लिखता
था. प्यार की कविताएं. यही कविताएं एक दिन उसे शहर के एक बहुत बड़े अख़बार में
ले आईं.
कई साल बीत गए, गॉंव
का एक पुराना दोस्त उससे मिलने उसके दफ़्तर आया. दोनों काफी देर बातें करते रहे.
लेकिन उसके दोस्त ने पाया कि अब वह बात धीमे से करता है और उन बातों पर बस मुस्कुरा
के रह जाता है जिन पर कभी वह ठहाके लगाया करता था. दोस्त ने उसकी ऑंखों में
झॉंका. ‘ठहाका लगा कर हँसने वाले को यहॉं गँवार माना जाता है, यार.’ कह कर वह सीट
से उठा और दोनों धीरे-धीरे कैंटीन की ओर चल दिए.
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