उस महानगर के बीचो-बीच एक बहुत बड़े चाैराहे के चारों तरफ वहां का बाज़ार बसा था. बाज़ार बस बाज़ार ही नहीं था, उसमें तमाम तरह के दफ़्तर भी थे. उस चौराहे पर पता नहीं कौन लोग सुबह मुंह-अंधेरे कुछ दाना डाल जाते, आैर कबूतर सारा दिन उसे चुगते रहते. चौराहे पर ट्रैफ़िक का बहुत ज़ोर रहता. फिर भी सड़क को पैदल पार करने वाले कुछ-कुछ लोग उधर से गुजरते तो कबूतर फड़फड़ा कर उड़ जाते.
वह, उसी बाज़ार के एक गोदाम में फ़ैक्ट्री से आया हुआ माल डिब्बों में पैक करने का काम करता था. वह शहर से दूर एक क़स्बे से शटल पकड़ कर रोज़ काम पर आता. स्टेशन से गोदाम जाता तो वह चौराहा उसके रास्ते में पड़ता. वह वहां रूकता आैर अपने खाने वाले थैले में से पानी की बोतल निकाल कर कबूतरों के लिए रखे कसोरे में खाली कर जाता. ठीक एेसा ही वह शाम को घर लौटते समय भी करता.
कर्इ साल बाद, उसकी नौकरी का आज आख़िरी दिन था. काम की मंदी के चलते. फ़ैक्ट्री आैर गोदाम बंद हाे गए थे. उसने भी फ़ैसला कर लिया था कि उम्र हो आर्इ है, वह अब आैर काम नहीं ढूंढेगा. घर पर ही रह कर कुछ छोटा-मोटा धंधा देखेेगा. आज शाम वह कसोरे में पानी की बोतल खाली करके वहीं ठिठक गया. कबूतर पानी पीने लगे. उसने एक लंबी सांस ली, उन कबूतरों को देखा आैर भारी मन से स्टेशन की आेर चल दिया.
तभी एकाएक, कबूतर फड़फड़ा कर उड़ गए. उसने पीछे मुड़ कर देखा, एक बच्ची कसोरे में आैर पानी डाल रही थी. वह मुस्कुरा दिया. कबूतर फिर चक्कर काट कर चौराहे पर लौट रहे थे.
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