पागलखाने
में एक क़ैदी था.
देखने
में खाते-पीते
घर का लगता था,
रोज़
सुबह शेव करता,
नहा-धो
कर पूजा-पाठ
करता,
सलीके
से साफ़-सुथरा
कमीज़-पायजामा
पहनता और फिर छाती पर,
छाती
से भी बड़ा दिखने वाला रिबन
का एक रंग-बिरंगा
बिल्ला लगाता.
शान
से,
कमरे
से बाहर निकलता,
दाएं-बाएं
देखता और मिलिट्री के रंगरूटों
की तरह सीना तान,
मुँह
उठा,
लंबे-लंबे
डग भरता हुआ बैरक के गलियारे
से निकल जाता.
अगर
वार्डन भी उसे कहीं जाने से
रोकता-टोकता
तो वह कुछ बोलता नहीं था बस
उसे कड़क उंगली से अपना बिल्ला
देखने का इशारा करता और बिना
कुछ कहे आगे निकल जाता.
उसका
बिल्ला देख,
बाक़ी
निवासी भी सिर झुका कर उसे
रास्ता दे देते थे.
उसका
जीवन निर्बाध चल रहा था.
एक
दिन,
पुराने
वार्डन का तबादला हो गया उसकी
जगह नया वार्डन आया.
उसने
रोज़ की तरह आज भी अपना बिल्ला
लगाया और मुँह उठाकर बैरक से
निकल गया.
वार्डन
ने उसे रोका तो वह हमेशा की ही
तरह कुछ बोला नहीं,
बस
उसे भी उंगली से अपना बिल्ला
देखने का इशारा किया और आगे
निकल गया.
यह
वार्डन बहुत कड़क था और उसके
हाथ में जो सोटा था वो तो उस वार्डन से
भी ज़्यादा कड़क था,
सूत
के उसके पिछवाड़े पर जो एक
टिकाया तो वह बाप-बाप
चिल्ललाता हुआ सिर पर पाँव
रख कर भागा...
इसी
भागमभाग में उसकी नींद टूट
गई.
उसने
पाया कि सूरज निकल आया था और
वह बिस्तर पर औंधे मुँह बचाओ-बचाओ
चिल्लाता हुआ यूँ उछल रहा था
जैसे गर्म तवे पर पानी की
तड़तड़ाती बूँदें.
उसके
दोनों हाथ अभी भी पिछवाड़े
पर ही जमे हुए थे.
तभी
उसकी नज़र सिरहाने अल्मारी
में रखे उस बड़े से रंगीन बिल्ले
पर पड़ी जिसे लगा कर शाम को
उसे 'बाज़ार कमेटी' के प्रोग्राम
में जाना था.
उसने
वह बिल्ला उठा कर यूं दूर फेंका
मानो उसमें बिच्छू लिपटे होने
की ख़बर मिली हो.
फिर धीरे से इधर-उधर
देखा और शुक्र मनाया कि उसकी
पत्नी कमरे में नहीं थी.
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