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बुधवार, 16 जुलाई 2014

(लघुकथा ) समय.



वे दोनों साथ-साथ खेले, पढ़े और बड़े हुए. दोनों बहुत अच्‍छे दोस्‍त थे. जवानी में एक समय वह भी आया जब उन्‍हें दुनि‍या के दुख-दर्द दि‍खाई देने लगे. उन्‍होंने वि‍भि‍न्‍न वि‍चारक पढ़े, क्रांति‍यों और उनके क्रांति‍वीरों की गाथाएं पढ़ीं. मार्क्स की बातें उन्‍हें बहुत भायीं. समय बीतता चला गया. दोनों अपनी-अपनी अलग दुनि‍या में व्‍यस्‍त हो गए.  

लंबे समय बाद, दोनों एक बार फि‍र मि‍ले. एक मि‍त्र दुनि‍यादार हो गया था, उसने समय के साथ ताल मि‍लाते हुए मुस्‍कुराना भी सीख लि‍या था. दूसरे की बात करने का सलीका धीमा था पर बीच-बीच में खौलने की सी बानगी भी देता था. यूं तो दोनों ने खूब बातें कीं पर अब, पता नहीं उनके बीच कोई दीवार सी थी जो नहीं ही गि‍री.

दोनों ने अपनी-अपनी दुनि‍या में लौटने से पहले देखा कि‍ एक फ़र्क़ और था, एक के पांव में अभी भी चप्‍पल थी, दूसरे के पॉंव में अब जूते थे. 

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रविवार, 13 जनवरी 2013

(लघुकथा) एक था भौंदू




दो बच्चे थे. दोनों पक्के अब्बे वाले दोस्त थे. पहला भौंदू था तो दूसरा कुछ हरामी सा था. जब भी मौक़ा मिलता, दूसरा आते-जाते भौंदू के एक कनटाप जड़ जाता. भौंदू तो भौंदू ठहरा, वो दूसरे को, पिटवाने की धमकी देकर कान मसलते-मसलते कूं-कां कर यहां-वहां निकल जाता. दूसरा भी खीस निपोरता और टहल जाता. ये सब हमेशा से ही, यूं ही चला आ रहा था.

एक दिन,  दूसरा कहीं से एक जहाज़ और एक बॉम्ब चुरा लाया. फि‍र वह
बॉम्ब, उसी जहाज़ में फ़िट कर दिया. और इस बार उसने वह जहाज़ ही भौंदू की कनपटी पर टिका दिया कि –‘देख अबके ये चला दूंगा. भौंदू ने दूसरे को झटका दि‍या -'ठहर, तेरी तो..' और इतना कह कर वह अपने घर के भीतर भागा. उसने गुस्से में अपने बस्ते से एक कॉपी निकाली. उसमें से एक पेज़ फाड़ा और ज़मीन पर बैठ कर उसका एक जहाज़ बनाया. फिर वो जहाज़ लेकर दूसरे के सामने आया और चिल्ला कर बोला- 'गर तूने अपनी माँ का दूध पिया है तो ले अब चला के दिखा, ना तुझे भी नानी याद दिला दी तो.'

अपने लड़ाकू जहाज़ के आगे, उसके हाथ में कागज़ का फड़फड़ाता जहाज देख कर वह भौचक रहा गया. दूसरे को कुछ समझ नहीं आया. वह सिर झटक कर बोला -'भग्ग. भौंदू कहीं का...' और पांव पटक कर वहां से निकल गया.
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