बुधवार, 30 जनवरी 2013

(लघुकथा) भालू



एक भालूवाला था. उसके पास एक भालू था. वह सारा दिन भालू को यहाँ-वहाँ नचा कर चार पैसे कमाता और रात को, दोनों उसी पैसे का कुछ-कुछ खा-पीकर सो रहते. एक दिन कहीं से पशु रक्षा समिति के कुछ कार्यकर्ता आए और उसका भालू ले भागे. वह डुगडुगाता हुआ पीछे-पीछे भागा और लगा चिरौरियां करने. तो एक ने उसे कुछ समझाया.

उसने एक पेड़ के नीचे ठीहा लगाया और अल्म्यूनियिम, लोहे, पीतल, ताँबे के कुछ खाली गंड्डे-ताबीज ख़रीद लिए जिनमें उसी भालू का एक-एक बाल भर कर, काले धागे से बाँध, मंत्र फूँक के अब वह दीन-दुखियों को दे देता है. दीन-दुखियों और भालू के बालों की स्प्लाई पशु रक्षा समिति करती है, शाम को कुल जमा रकम में से कर्ता-प्रमुख का हफ़्ता वह आस्था से पहुँचा आता है.

अब लोग उसे भालूवाला बाबा के नाम से जानते हैं.

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1 टिप्पणी:

  1. मदी के इस दौर में आप भालुओं को क्यों बली का बकरा बना रहे हो भाई साहब ? नुश्खे भी ओसे सुझाते हो कि तुरंत समझ में अ जाए :)

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