वह गॉंव से शहर आ गया था
और कुछ ले-दे के रेलवे लाइन के किनारे बंग्लादेशियों के साथ-साथ उसने भी एक
झुग्गी डाल ली थी. गॉंव में उसके पास यूं भी कुछ नहीं था दूसरों के यहां किसानी-मज़दूरी
करता था, यहां चौकीदारी करने लगा. एक दिन वह दूसरे गार्ड से बात कर रहा था कि शहरों
में लोग जात-बिरादरी के हिसाब से नहीं रहते.
वह गार्ड उस पर हँस दिया –‘अरे
भई नहीं. वहां गांवों में लोग जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के हिसाब
से रहते हैं, वैसे ही सरकार यहां उन्हें एच.आई.जी, एम.आई.जी. एल.आई.जी. और जनता
फ़्लैटों के नाम वाली अलग अलग बस्तियों में बसाती है.’
वह चुप था. शायद सोच रहा था
कि, नहीं अब उसे जनता फ़्लैट से ऊपर का सपना देखना होगा.
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